________________
341
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
आचारदिनकर (खण्ड-४) ६७. सौभाग्यकल्पवृक्ष-तप -
अब सौभाग्यकल्पवृक्ष-तप की विधि बताते हैं - “सौभाग्यकल्पवृक्षवस्तु चैत्रेऽनशनसंचयैः।
____ एकान्तरैः परकार्यस्तिथि चन्द्रादिके शुभे ।।"
यह तप सौभाग्य देने में कल्पवृक्ष के समान है, अतः इसे सौभाग्यकल्पवृक्ष-तप कहते हैं। यह तप चैत्रमास (शुक्लपक्ष प्रतिपदा) में प्रारम्भ किया जाता है, सम्पूर्ण मास में एकान्तर उपवास करके यह तप करे।
इस तप के उद्यापन में बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक सोने एवं चांदी का परिपूर्ण कल्पवृक्ष बनाकर परमात्मा के आगे रखे। साधर्मिकवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। यह तप साधुओं एवं श्रावकों के करने योग्य आगाढ़-तप है। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
सौभाग्यकल्पवृक्ष-तप, आगाढ़, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक शुक्ल प्र. द्वि. तृ. | च. पं. | ष. स. अ. न. | द. ए. द्वा. त्र. च. पू. प्र. | पक्ष
। तप उ. पा. उ. पा. उ. पा. उ. पा. उ. पा. उ. | पा. उ. पा. उ. | पा. ६८. दमयन्ती-तप - “दमयन्ता प्रतिजिनमाचाम्लान्येक विंशतिः।
कृतानि संततान्येव, दमयन्तीतपो हि तत्।।१।।" दमयंती ने नल राजा के वियोगावस्था में यह तप किया था, इसलिए इसे दमयंती-तप कहते हैं। इस तप में प्रत्येक जिनेश्वर को लक्ष्य में रखकर बीस-बीस तथा शासन-देवता को लक्ष्य में रखकर एक-एक - इस तरह निरन्तर इक्कीस-इक्कीस आयंबिल करे। वर्तमानकाल की अपेक्षा से तथा शक्ति के न होने पर एक-एक
' मूलग्रन्थ में ये दोनों तप साधुओं के लिए भी करणीय हैं- ऐसा उल्लेख मिलता है, जो उचित नहीं है। चूंकि ये तप फल की आकांक्षा वाले हैं और साधु प्रायः कभी भी कोई तप फल की आकांक्षा से नहीं करते है; अतः ये तप श्रावकों के लिए ही करणीय होना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org