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उ. १ मुक्तिशिला आं. १ सर्वार्थसिद्धि आं.१ अपराजित
ना. |
मति
आचारदिनकर (खण्ड-४)
335 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ५६. लोकनाली-तप -
| लोकनाली-तप अब लोकनाली-तप की विधि बताते हैं - "सप्तपृथ्व्यो मध्यलोकः कल्पा ग्रैवेयका अपि।
___ अनुत्तरा मोक्षशिला, लोकनालिरितीर्यते।।१।। आ. जयंत एकभक्तान्युपवास, एक भक्तानि नीरसाः। आचाम्लान्युपवासाश्चक्रमात्तेषु तपः स्मृतं ।।२।।"
लोकनाली के क्रम से जो तप किया जाता है, उसे लोकनाली-तप कहते हैं। इसमें रत्नप्रभादि सात नरक पृथ्वी को लक्ष्य में रखकर निरंतर सात एकासन करे। तत्पश्चात् मध्यलोक को लक्ष्य में रखकर एक उपवास करे। उसके बाद बारह कल्प को लक्ष्य में रखकर बारह एकासन करे। फिर नौ ग्रैवेयक को लक्ष्य में रखकर नौ नीवि करे। पाँच अनुत्तर विमान को लक्ष्य में रखकर पाँच आयम्बिल करे तथा सिद्धशिला को लक्ष्य में रखकर एक उपवास करे। इस तरह पैंतीस दिन में यह तप पूरा होता है। इसमें १६ एकासन, ६ नीवि, ५ आयम्बिल और २ उपवास होते हैं।
इस तप के उद्यापन में बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक परमात्मा की पूजा करे। चाँदी की सात पृथ्वी, स्वर्ण का मध्यलोक, विविध मणि वाले बारह कल्प, नौ । ए., सौधर्म ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान तथा स्फटिक की सिद्धशिला बनाकर उन पर स्वर्ण एवं रत्नों की स्थापना करे तथा ये सब परमात्मा के आगे पुरुष-प्रमाण अक्षत का ढेर करके उस पर रखे तथा नाना प्रकार के पकवान आदि चढ़ाए। ए. साधर्मिकवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के ए. १ | रत्नप्रभा । करने से परमज्ञान की प्राप्ति होती है। यह तप साधु एवं श्रावक के करने योग्य आगाढ़-तप है। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है
आं. वैजयंत आं. १ विजय
पंचाणुत्तर नी. सुदर्शन
सुप्रतिबन्ध नी. | मनोरम
सर्वतोभद्र सुविशाल सौम्यग्रे सुमनस प्रीतिकर आदित्य
ग्रेवेयक १२ । द्वादशकल्प ए.१] अच्युत
आरुण प्राणत आणत
नी. | नी. ६ |
सहस्रार
शुक्र
लांतक
ए.१ माहेन्द्र ए.१ | सनत्कुमार
ईशान
उ.१
७
मध्यलोक नरक
।
महात्तम
ए.१
र रखे
ए. १
तमःप्रभा धूमप्रभा पंकप्रभा वालुका शर्करा
ए.१
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