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आचारदिनकर (खण्ड-४)
333 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि एकासन से पारणा करे। तत्पश्चात् एकांतर से पारणे में एकासन करते हुए बत्तीस उपवास करे और अंत में निरन्तर तीन उपवास करके पारणा करे - इस प्रकार यह तप अड़तीस उपवास के दिन और चौंतीस पारणा के दिन मिलाकर कुल ७२ दिनों में पूरा होता है।
इस तप के उद्यापन में बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक परमात्मा की पूजा करके बत्तीस- बत्तीस पकवान, फल आदि चढाए। संघवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन होता है। यह तप
बत्तीस कल्याणक-तप, आगाढ़ साधुओं एवं श्रावकों - दोनों को करने योग्य आगाढ़-तप है।
उ.१ पा. | उ.१ उ. १ | पा. उ.१ उ.१ पा. | उ.१. उ. १ | पा. | उ. १ उ.१ | पा. | उ.१] उ.१ | पा. | उ.१
उ.१ | पा. | उ.१ | उ. १ | पा. | उ. १
पा. | उ. १ पा. | उ.१ पा. उ. १] पा. उ. १ पा.. | उ. १ पा. उ. १ पा. | उ. १ पा. | उ. १
पा. | उ.१ पा. पा. उ. १ पा. पा. उ. १] पा. पा. | उ. १ पा. पा. | उ. १ पा. पा. उ. १ पा. पा. उ.१] पा. पा. | उ. १] पा.
प्रकार है -
५७. च्यवन-तप -
अब च्यवन-तप की विधि बताते हैं - "चतुर्विंशतितीर्थेशानुद्दिश्य च्यवनात्मकम्।
विना कल्याणकदिनैः कार्यानशनपद्धतिः।।" च्यवन को दृष्टिगत रखकर जो तप किया जाता है, उसे च्यवन-तप कहते हैं। इसमें चौबीस तीर्थंकरों को ध्यान में रखकर, उनके कल्याणक के दिनों का ध्यान रखे बिना, शक्ति के अनुसार एकांतर चौबीस उपवास करे।
इस तप के उद्यापन में बृहत्स्नात्रविधिपूर्वक परमात्मा की पूजा कर उनके आगे २४-२४ पकवान, फल आदि चढ़ाए। संघवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से सद्गति की प्राप्ति होती है। जन्म-तप भी इस प्रकार किया जाता है। यह दोनों तप साधु एवं श्रावक के करने योग्य अनागाढ़-तप हैं। इन दोनों तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
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