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आचारदिनकर (खण्ड-४)
328 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि चतुर्विधसंघ की आराधना के लिए यह तप किया जाता है। इस तप में सर्वप्रथम निरन्तर दो उपवास करके पारणा करे। तत्पश्चात् एकान्तर पारणा करते हुए साठ उपवास करे। इस तप के उद्यापन में साधर्मिकवात्सल्य एवं संघपूजा करे। इस तप के करने से तीर्थकर-नामकर्म का उपार्जन होता है। यह तप साधुओं एवं श्रावकों - दोनों को करने योग्य आगाढ़-तप हैं। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
२ उ.
चतुर्विधसंघ-तप, आगाढ़, दिन-१२२ पा. | उ. | पा. उ. | पा. | उ. पा. | उ. पा. उ. | पा.
उ. पा. | उ. पा. | उ. | पा. उ. पा. उ. | पा. उ. पा. उ. | पा. उ. | पा. उ.. | उ. उ. पा. | उ. पा. | उ. | पा. उ.
उ. | पा. पा. | उ. | पा. उ. | पा. | उ. | पा. | उ. | पा. पा. उ. | पा. | उ. |
पा. - उ. पा. उ. पा. | उ. | पा. | उ. | पा. | उ. | पा. | उ. | पा. उ. | पा. | उ. | पा. | उ. | पा. | उ. | पा. उ. | पा. उ. | पा. | उ. | पा. | उ. | पा. | उ. | पा. | उ. | पा. उ. पा. उ. पा. | उ. | पा. | उ. पा. | उ. | पा.
उ. पा. उ. पा. | उ. पा. | उ. | पा. | उ. पा. | उ. पा. उ. पा. | उ. | पा. | उ. पा. | उ. पा.
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५१. घन-तप -
अब घन-तप की विधि बताते हैं - "एकद्वयेकद्वयेकयुग्मशशिसंख्ययोपवासैश्च।
पारणकान्तरितैरपि निरन्तरैः पूर्यतेऽत्र घनं ।।१।।" विविध अंकों की युक्ति से किए जाने वाले तप को घन-तप कहते हैं। इस तप में क्रमशः एक उपवास करके पारणा करे, फिर दो उपवास करके पारणा करे, पुनः इसी प्रकार एक उपवास करके पारणा करे और फिर दो उपवास करके पारणा करे। तत्पश्चात् पुनः दो उपवास, एक उपवास, दो उपवास, एक उपवास एकान्तर पारणे से करे। इस प्रकार इस तप में कुल बारह उपवास एवं आठ पारणे होते
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