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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 288 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि वज्रमध्य चांद्रायण-तप - वज्रमध्य चांद्रायण-तप साधु और श्रावक - दोनों को इस प्रकार से करना चाहिए। कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को पन्द्रह ग्रास तथा दत्ति से आरम्भ करके एक-एक दत्ति तथा कवल कम करने से अमावस्या के दिन एक ग्रास या एक दत्ति रह जाती है, तत्पश्चात् शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास या दत्ति से प्रारम्भ कर एक-एक दत्ति या कवल बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पन्द्रह ग्रास या पन्द्रह दत्ति होती है। इस प्रकार वज्रमध्य चांद्रायण-तप भी एक माह में पूरा होता है। इस तरह यवमध्य एवं वज्रमध्य चांद्रायण-तप दो मास में पूर्ण होता है। उद्यापन में जिनप्रतिमा को बृहत्स्नात्रविधि से स्नात्र कराकर छहों विगयों के नैवेद्य सहित चंद्रमा की चांदी की मूर्ति, सोने का व्रज, सोने के साठ कवल तथा ४८० मोदक जिनप्रतिमा (परमात्मा) के आगे रखे। मुनिजनों को वस्त्र, पात्र एवं अन्न आदि का दान दे तथा संघ की भक्ति करे। यह तप करने से सब पापों का क्षय तथा पुण्य की वृद्धि होती है। दोनों प्रकार का यह तप साधु तथा श्रावक के करने योग्य आगाढ़-तप है। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है - शुक्ल पक्ष १ क.या दत्ति २ क. यवमध्य चान्द्रायण-तप शक्लपक्ष में वृद्धि ३ | ४ | ५ ६ ७ ८ ९ १० क. क. क. क. क. क. क. क. ११ १२ १३ | १४ | १५ क. क. क. क. क. यवमध्य चांद्रायण-तप कृष्णपक्ष में हानि १५|१४|१३| १२|११|१०६८७६५ ४ | ३ | २१ कृष्णपक्ष क. क. क. क. क. क. क. क. क. क. क. क. क. क. क. वज्रमध्य चांद्रायण-तप कृष्णपक्ष में हानि | कृष्ण पक्ष | १५ |१४| १३ | १२ / ११ /१०/६/८/७/६/५/४/३/२/१ क. दत्ति | क. क. क. | क. | क. क. क. क. | क. | क. क. | क. | क. | क. | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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