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आचारदिनकर (खण्ड-४)
275 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अनुसार हमेशा एकासन, नीवि, आयम्बिल या उपवास करना चाहिए। इस तरह सात वर्ष तक यह तप करना चाहिए तथा तप के दिनों में बृहत्स्नात्र विधि से परमात्मा की पूजा करनी चाहिए। इस तप के यंत्र का न्यास इस प्रकार है -
चैत्र शुक्ल लघुअष्टाह्निका-तप तिथि | | १० ११ १२ १३ १४ १५ ए. नी. आं.. उप. ए. नी. आं. उप.
आश्विन शुक्ल अष्टमी तिथि | ८ ६ / १० / ११ १२ १३ १४ । १५
ए. नी. आं. | उ. | ए. | नी. | आं. | उ..
उद्यापन में छप्पन छप्पन पकवान, पुष्प, फल आदि से परमात्मा की पूजा करे। साधु भगवंतों को आहार-दान तथा यथाशक्ति संघ की पूजा करनी चाहिए। ये दोनों तप दुर्गति का नाश करने वाले हैं। यह तप साधुओं तथा श्रावकों के करने योग्य आगाढ़ तप है। ११. कर्मसूदन-तप -
“प्रत्याख्यानान्याष्टौ, प्रत्येकं कर्मणां विघाताय । इति कर्म सूदन तपः, पूर्ण स्याधुगरसमिताहैः ।।१।। उपवासमेकभक्तं, तथैक सिक्थैक संस्थिती दत्ती ।
निर्विकृतिकमाचाम्लं, कवलाष्टकं च क्रमात्कुर्यात् ।।२।।" यह तप १. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयुष्य ६. नाम ७. गोत्र एवं ८. अन्तराय - इन आठ कर्मों का क्षय करता है, अर्थात् उनका पूर्ण रूप से छेदन होने से इसे कर्मसूदन-तप कहा जाता है।
इस तप में ज्ञानावरण-कर्म के लिए प्रथम दिन उपवास, दूसरे दिन एकासन, तीसरे दिन एकसिक्थ (एक दाना) स्थान पर चौविहार
आयंबिल, चौथे दिन एकस्थान (एकलठाणा/ठाम चौविहार एकासन), पाँचवें दिन ठाम चौविहार एकदत्ती (एक बार पात्र में आ जाए, वही खाना), छठवें दिन लूखी नीवि, सातवें दिन आयंबिल एवं आठवें दिन
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