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आचारदिनकर (खण्ड-४) 272 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
अब प्रत्येक तप की विस्तार से चर्चा करते हैं - १. उपधान - उपधान-तप की विधि व्रतारोपण अधिकार से जानें। २. गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमा-तप - गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमाओं के वहन की विधि को भी व्रतारोपण अधिकार से जानें । ३. बारह यतिप्रतिमा-तप - इसकी विधि यतिधर्म के उत्तरभाग के प्रतिमा अधिकार से जानें। ४. सिद्धान्तयोग-तप (योगोद्वहन-तप) - सैद्धांतिकयोग-तप यतिधर्म के उत्तरभाग के योगोद्वहन अधिकार से जानें।
जिनेश्वरों द्वारा जो तप बताए गए हैं, उनमे से शेष रहे चार तपों की व्याख्या करते हैं। ५. इन्द्रियजय-तप -
पूर्वार्धमेक भक्तं च विरसाम्ले उपपोषितं,
प्रत्येकमिन्द्रियः पंचविंशति वासरै।।१।। पूर्वार्द्ध, एकासन, नीवि, आयंबिल और उपवास।
इस प्रकार क्रमशः पाँच दिन तक ये तप करने से एक इंद्रियजय का तप होता है। इस तरह पाँचों इन्द्रियों के जय के लिए पाँच ओली करने से पच्चीस दिन में यह तप पूरा होता है। स्पर्शन, रस, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्ररूप इन्द्रियों की जय के लिए जो तप किया जाता है, उसे इन्द्रियजय-तप कहते हैं। (इसकी विधि बताई गई है) तपस्या के दिनों में भूमि पर शयन करना चाहिए तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
इस तप के यंत्र का । इन्द्रियजय-तप, कुल दिन - २५ । न्यास इस प्रकार है-
| स्पर्श | पू.१ | ए.१ | नी.१ | आं.१ | उप.१ /
| रस | पू.१ | ए.१ | नी.१ | आ.१ | उप.१ उद्यापन के समय पूजा में
| घ्राण | पू.१ | ए.१ नी.१ | आं.१ | उप.१ | जिनेश्वर की प्रतिमा के आगे | चक्षु | पू.१ | ए.१ | नी.१ | आ.१ | उप.१ | विभिन्न प्रकार के पच्चीस - श्रोत्र पू.१ | ए.१ नी.१ आ.१ उप.१ पच्चीस पकवान, फल आदि चढाए और उतनी ही संख्या में पकवानों का साधुओं को दान दे। यह तप करने से सभी इन्द्रियों की अशुभ प्रवृत्ति नहीं होती है। यह तप साधु एवं श्रावक - दोनों के करने योग्य
है।
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