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आचारदिनकर (खण्ड-४) 247 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि रूप से भाण्डोपकरण आदि की प्रतिलेखना करे। वसति का प्रमार्जन करने के बाद पुनः गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे। उसके बाद - "भगवन् सज्झाय मुहपत्तिं पडिलेहेमि"- इस प्रकार कहकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। तत्पश्चात् खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन. करके क्रमशः कहे - “भगवन् सज्झाय संदिसावेमि, सज्झाय करेमि" (भगवन्! स्वाध्याय हेतु अनुमति दें, स्वाध्याय करूं ?) उसके बाद नमस्कारमंत्र बोलकर “जयइ जगजीवजोणी." इत्यादि पाँच गाथाएँ बोले। तत्पश्चात् मुनि ने आहार किया हो, तो वन्दन करे, आहार न किया हो, तो वन्दन न करे। उसके बाद खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके क्रमशः कहे – “भगवन् उवही थंडिल्ला संदिसावउं उवही थंडिल्ला पडिलेहउं"(हे भगवन् ! उपधि एवं स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना करने की अनुमति दें, उपधि एवं स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना करूं ?) प्रतिलेखना करने के बाद शक्ति के अनुसार त्रिविधाहार या चतुर्विधाहार का दिवसचरिम प्रत्याख्यान करे। तत्पश्चात् संध्या का समय होने पर प्रतिक्रमण हेतु मुनि सभी कार्यों का त्याग करके मुनि-मण्डली में स्थित हो, श्रावक भी पूर्व में बताई गई विधि के अनुसार सामायिकव्रत को ग्रहण करे। दैवसिक-प्रतिक्रमण की संक्षिप्त विधि इस प्रकार है -
इरियावहि, कालोयगोयरचरिया की गाथा, प्रत्याख्यान, उत्कृष्ट देववंदन, सामायिक दण्डक एवं आलोचना का पाठ, कायोत्सर्ग, वंदन, क्षमापना, वंदन, आचार्यों आदि को क्षमापना, सामायिक दण्डक एवं आलोचना का पाठ, कायोत्सर्ग, चतुर्विंशतिस्तव, चैत्यस्तव, कायोत्सर्ग, श्रुतस्तव, कायोत्सर्ग, सिद्धस्तव, श्रुतदेवता का कायोत्सर्ग, स्तुति, मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, वंदन, स्तुतित्रिक का कथन, शक्रस्तव अर्हत्स्तुति, प्रायश्चित्त तथा क्षुद्रोपद्रव का कायोत्सर्ग करना - इस प्रकार अनुक्रम से दैवसिक प्रतिक्रमण करे। अब विस्तार से इसकी व्याख्या करते हैं -
सर्वप्रथम गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे। तत्पश्चात् साधु "गोयरचरी पडिक्कमणत्थं करेमि काउसग्गं अन्नत्थ यावत् अप्पाणं वोसिरामि" - इस प्रकार बोलकर नमस्कारमंत्र का
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