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आचारदिनकर (खण्ड-४) 243 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विशतिस्तव का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव बोले। तत्पश्चात् चार खमासमणासूत्रपूर्वक क्रमशः आचार्य, उपाध्याय, गुरु एवं सभी साधुओं को वन्दन करके "भगवन् राईपडिक्कमणंठाउं। सव्वस्सवि राईदुच्चिंतिय दुब्भासिय, दुचिट्ठिय इच्छाकारेण संदिसह भगवन् इच्छं तस्स मिच्छामि दुक्कडं" - इस प्रकार से बोले। तत्पश्चात् संपूर्ण शक्रस्तव बोले तथा खड़े होकर सामायिक-दण्डक (करेमिभंते.), आलोचनापाठ (इच्छामिठामि.) एवं तस्सउत्तरीसूत्र आदि बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव बोलकर सर्वलोक के अर्हत चैत्यों की स्तवना करने हेतु चतुर्विंशतिस्तव का कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके श्रुतस्तव (पुक्खर.) बोले। पुनः कायोत्सर्ग करे तथा कायोत्सर्ग में साधुवर्ग “सयणासणन्नपाणे."- इस गाथा का चिन्तन करे। श्रावकवर्ग यहाँ कायोत्सर्ग में “नाणंमि दंसणंमि."- अतिचार की इन आठ गाथाओं का चिन्तन करे। (मूलग्रन्थ में यहाँ वे आठों ही गाथाएँ मूल रूप में दी गई है।) कायोत्सर्ग पूर्ण करके सिद्धस्तव (सिद्धाणं.) बोलकर बैठ जाए और बैठकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। सभी जगह मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना एवं द्वादशावर्त्तवन्दन के समय उत्कटिक आसन में बैठे। तत्पश्चात् वन्दन करके "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् राइयं आलोएमि"- इस प्रकार बोलकर आलोचना का पाठ (इच्छामिठामि.) बोले। तत्पश्चात् साधु, ज्येष्ठ आदि के अनुक्रम से “संथारा उवट्ठणाए. यावत् तस्स मिच्छामि दुक्कडं" तक यह सूत्र बोले। श्रावक “सव्वस्सवि राईय." का पाठ बोले। तत्पश्चात् साधु तथा श्रावक स्वयं के लिए जो-जो उचित है ऐसा, अर्थात् साधु श्रमणसूत्र (पगामसज्झाय) बोले तथा श्रावक वंदित्तुसूत्र बोले। तत्पश्चात् पुनः द्वादशावर्त्तवन्दन करके "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् राइयं खामेमि इच्छं खामेमि राइयं."- इस प्रकार बोलकर क्षमापना करे। क्षमापना करके पुनः द्वादशावर्त्तवन्दन करके श्रावक ललाट पर अंजलि लगाकर “आयरिय उवज्झाय." इन तीन गाथाओं को बोले। गच्छ-परम्परा के अनुसार कहीं-कहीं साधु भी ये तीन गाथाएँ बोलते
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