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आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
इस प्रकार हैं ४. सर्वसमाधिप्रत्ययाकार ।
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१. अनाभोग २. सहसाकार
किसी कारणवश यदि गृहीत प्रत्याख्यान का परित्याग करना पड़े और उससे जो आचरण का भंग होता है, उस अशुद्धि की शुद्धि पुनः उसी प्रत्याख्यान द्वारा करें। इस प्रकार सभी प्रत्याख्यानों की व्याख्या की गई है। अब प्रत्याख्यान - शुद्धि बताते हैं
प्रत्याख्यान - शुद्धि के छः प्रकार हैं, जो इस प्रकार से हैं १. श्रद्धाशुद्धि २. ज्ञानशुद्धि ३. विनयशुद्धि ४. अनुभाषणशुद्धि ५. अनुपालन शुद्धि ६. भावशुद्धि - इन सब की व्याख्या इस प्रकार हैं -
प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
३. महत्तराकार एवं
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श्रद्धाशुद्धि - सर्वज्ञों ने जो प्रत्याख्यान जिस विधि से, जिस अवस्था में तथा जिस काल में करने के लिए कहा है, उसी प्रकार से, उसी अवस्था में और उसी काल में वह प्रत्याख्यान करने योग्य है इस प्रकार की श्रद्धा रखना श्रद्धाशुद्धि है ।
ज्ञानशुद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से प्रत्याख्यान को जानकर तथा मूलगुण- भेद से विकल्पों को जानकर ज्ञाता के पास प्रत्याख्यान करना ज्ञानशुद्धि कहलाती है ।
विनयशुद्धि - मन-वचन एवं कायागुप्ति तथा विनयपूर्वक गुरु को वंदन कर प्रत्याख्यान करने को विनयशुद्धि कहते हैं ।
अनुभाषणशुद्धि - गुरु द्वारा प्रत्याख्यानसूत्र के जो अक्षर, पद एवं व्यंजन जिस रूप में कहे गए हैं, उन्हें उसी प्रकार शुद्धिपूर्वक दोहराना अनुभाषणशुद्धि है।
अनुपालनशुद्धि प्रत्याख्यानों को भंग न करते हुए जिस रूप में ग्रहण किया है, उसी रूप में उसका पालन करना अनुपालन शुद्धि
है ।
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भावशुद्धि राग-द्वेष आदि के परिणामों से प्रत्याख्यान को दूषित नहीं करना भावशुद्धि है ।
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दूसरे प्रकार से शुद्धि के छः प्रकार निम्नांकित हैं स्पर्शित २. पालित ३. शोभित ४. तीरित ५. कीर्तित एवं ६ .
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