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आचारदिनकर (खण्ड-४) 205 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि होने पर तथा उप्रदव होने पर भी (बीच में ही) कायोत्सर्ग पारने पर कोई दोष नहीं लगता है।
अब कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष बताते हैं - १. घोटक-दोष - घोड़े के समान एक पैर ऊँचा एवं एक पैर
नीचे रखना। २. लता-दोष - वायु से बेल (लता) हिलती है, उस प्रकार
शरीर का हिलाना। ३. स्तम्भादि-दोष - खम्भे का सहारा लेकर खड़े रहना। ४. कुड्य (भित्ति)-दोष - भित्ति का सहारा लेकर खड़े रहना। ५. माल-दोष - माला हो, तो उसको सिर टिकाकर खड़े
रहना। ६. शबरी-दोष - नग्न भीलड़ी की तरह गुह्यस्थान को हाथ
से ढंकना। ७. वधू-दोष - नव परिणिता (वधू) की तरह सिर नीचा
रखना। ८. निगड-दोष - निगड में पग डाले हों, उस तरह से पैर
संकुचित या विस्तारित (पोहले) रखना। ६. लम्बोत्तर-दोष - नाभि के ऊपर तथा ढ़ीचण के नीचे तक
लम्बा वस्त्र रखना। (साधु नाभि के नीचे और ढीचण से चार अंगुल ऊपर चोलपट्टा पहनते हैं, उसी को लक्ष्य में रखकर यह दोष बताया गया है।) १०.स्तन-दोष - डांस एवं मच्छरों से रक्षा करने के लिए स्त्री ___ की भाँति हृदय को आच्छादित करके रखना। ११. शकट-दोष एवं संयती-दोष - गाड़ी के ऊध की तरह पग
के अंगूठे तथा पानी को मिलाकर खड़े रहना तथा शीतादि के भय से साध्वीजी की तरह दोनों कंधे ढककर
रखना। १२.खलिन-दोष - घोड़े के चौकड़े की तरह रजोहरणयुक्त
हाथ रखना। १३. वायस-दोष - कौएं की तरह आँख फेरना।
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