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________________ आचारदिनकर (खण्ड- ४ ) 194 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ७. लाक्षावाणिज्य लाख, नील, मनःशिल, सुहागा, धातु वगैरह की वस्तुओं का व्यापार लाक्षावाणिज्य कहलाता है । शहद, मक्खन, मदिरा आदि का व्यापार रसवाणिज्य ८. - - रसवाणिज्य कहलाता है । ६. केशवाणिज्य - द्विपद ( दास, दासी) एवं चतुष्पद ( जानवरों) का व्यापार करना केशवाणिज्य कहलाता है । १०. विषवाणिज्य विष, शस्त्र, हल-यंत्र, हरिताल, लोहादि का व्यापार करना विषवाणिज्य कहलाता है । ११. यंत्रपीडनकर्म - रहट्ट आदि जलयंत्र, एरण्डी, सरसों, ईक्षु आदि पीसना, अर्थात् घाणी चलाने को यंत्रपीडनकर्म कहते हैं । १२. निलछनकर्म - अश्व, हाथी आदि के अंडकोश, कर्ण एवं कम्बल (गाय, बैल के गले में नीचे की तरफ लटकने वाली खाल) का छेदन करने को निलांछनकर्म कहते हैं । १३. दवदानकर्म - शोख से आग लगाने, पुण्यबुद्धि से आग लगाने तथा वन में आग लगाने आदि को दवदानकर्म कहते हैं । १४. शोषणकर्म - सरोवर, तालाब, बाँध, द्रह आदि के जल को सुखाने का कर्म शोषणकर्म कहलाता है । १५. असती - पोषण कर्म - धन के लिए दास-दासी, मैना, तोता, बिलाव, मुर्गा, मोर, कुत्ते आदि का पालन-पोषण करना । अब अनर्थदण्ड व्रत के अतिचारों की आलोचना हेतु एक साथ तीन गाथाएँ बताई गई हैं - " सत्यग्गि मुसल जतंग तण कट्ठे मंत-मूल- भेसज्जे । दिन्ने दवाविए वा, पडिक्कमे देवसिअं सव्वं । । २४ । । हाणुव्वट्ठण वन्नग विलेवणे सद्दरूव रस गन्धे । वत्थासण आभरणे, पडिक्कमे देवसिअं सव्वं ।। २५ ।। कंदप्पे कुकुइए मोहरि अहिगरण भोग अइरित्ते । दंडंमि अणट्ठाए तइयंमि गुणव्वए निंदे ।। २६ ।। " Jain Education International भावार्थ अब आठवें व्रत में लगे हुए अतिचारों की आलोचना करता हूँ । शस्त्र, अग्नि, मूसल आदि कूटने के साधन विभिन्न प्रकार के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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