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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 188 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अप्रशस्त भावों का उदय होने से स्थूल प्राणातिपात - विरमणव्रत में जो कोई अतिचार लगा हो, उससे मैं निवृत्त होता हूँ । वध - द्विपद, चतुष्पद आदि जीवों को निर्दयतापूर्वक मारना । बन्ध द्विपद आदि जीवों को रस्सी आदि से बाँधना । अंगच्छेद चमड़ी, नासा आदि का छेदन करना तथा कर्ण - आदि काटना । अइभारे - प्राणियों की शक्ति की अपेक्षा अधिक बोझ लादना । भत्त- पाण- वुच्छेए - प्राणियों के खाने-पीने में अंतराय डालना । इन उपर्युक्त विषयों में से दिवस सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ । विशिष्टार्थ उपर्युक्त दोनों गाथाओं का परस्पर सम्बन्ध है प्रथम अणुव्रत में अप्रशस्त स्थूलप्राणातिपात से विरति होती. हैं । यति के लिए उचित महाव्रत की अपेक्षा इनमें प्रमाद के प्रसंग होने से इन्हें स्थूलप्राणातिपातविरति, अर्थात् अणुव्रत कहा गया है। इसमें गृहस्थ स्थूल प्राणों की हिंसा एवं द्वीन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा से ही निवृत्त होता है, अर्थात् वध, बंध, अंगच्छेद आदि के रूप में स्थूलप्राणातिपात से विरति होती है। अइआरे - नियम का अतिक्रम करने को, अथवा किसी कार्य में अति करने को अतिचार कहते हैं । Jain Education International - अप्पसत्थे अप्रशस्त, अथवा क्रोध आदि कषायों की असमता होने पर पंचेन्द्रिय जीवों को दुःख होता है । पमायप्पसंगेणं इस अणुव्रत में पद्य आदि को प्रमाद के नजदीक ले जाने के कारण अतिचार कहा है । ( दूसरे अणुव्रत के अतिचारों की आलोचना ) "बीए अणुव्वयम्मी परिथूलग - अलिय वयण विरइओ । आयरिअमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगेणं ।। ११ । । सहस्सा-रहस्स-दारे मोसुवएसे अ कूडले हे अ । बीयवयस्स इआरे, पडिक्कमे देवसिअं सव्वं ।। १२ ।। " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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