SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 187 प्रायश्चित्त. आवश्यक एवं तपविधि आचारदिनकर (खण्ड-४) भावार्थ - सम्यक्त्व को मलिन करने वाले पाँच अतिचार हैं। उनकी इस गाथा में आलोचना की गई है। वह इस प्रकार है - १. वीतराग सर्वज्ञ के वचनों में शंका करना। २. परमत को चाहना। ३. धर्म के फल में संदेह होना, अथवा साधु-साध्वियों का मलिन शरीर या वस्त्र देखकर निंदा करना। ४. मिथ्यात्वियों की प्रशंसा करना एवं ५. मिथ्यादृष्टियों से परिचय करना। इन पाँचों अतिचारों में से दिवस सम्बन्धी जो छोटे अथवा बड़े अतिचार लगे हों, उससे मैं निवृत्त होता हूँ। पुनः निम्न गाथा में व्रतखण्डन के हेतुओं को बताते हुए उनकी आलोचना की गई है - "छक्काय सभारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा। अत्तट्ठा य परट्ठा उभयट्ठा चेव तं निंदे।।७।।" भावार्थ - स्वयं के लिए, दूसरों के लिए तथा दोनों के लिए पकाते हुए, पकवाते हुए, पृथ्वी कायादिक छकाय की विराधना होने से जो दोष लगे हों, उनकी मैं निन्दा करता हूँ। “पंचण्हं अणुव्वयाणं गुणव्वयाणं च तिण्ह मइआरे। सिक्खाणं च चउणं पडिक्कमे देवसि सव्वं ।।८।।" भावार्थ - - पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों में (इन बारह व्रतों में) दिवस सम्बन्धी छोटे-बड़े जो अतिचार लगे हों, उन सबसे मैं निवृत्त होता हूँ। (प्रथम अणुव्रत के अतिचारों की आलोचना) “पढमे अणुब्बयम्मी, थूलग-पाणाइवाय विरइओ। आयरियमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगेणं ।।६।। वह-बंध-छविच्छेए, अइभारे भत्त पाण वुच्छेए। पढम वयस्स इआरे, पडिक्कमे देवसिअं सव्वं ।।१०।।" भावार्थ - __अब यहाँ प्रथम अणुव्रत के विषय में (लगे अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता है) प्रमाद के प्रसंग से अथवा (क्रोधादि) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy