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आचारदिनकर (खण्ड-४). 180 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सत्य ही हैं- ऐसी आत्मीय श्रद्धा रखता हूँ, उसको निःसंशयपूर्वक अंगीकार करता हूँ, उनके प्रति रूचि रखता हूँ, क्रिया द्वारा उनका स्पर्श करता हूँ, उनका पालन करता हूँ तथा उपदेश द्वारा उनके स्व-पर को आचरण करवाऊंगा (अणुपालेमो शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है)।
"ते भावे सद्दहंतेहिं, पत्तियंतेहिं, रोयंतेहिं, फासंतेहिं पालंतेहिं, अणुपालंतेहिं, अन्नतोपक्खस्स, जं वाइयं, पढ़ियं, परियट्टियं, पुच्छियं, अणुपेहियं, अणुपालियं, तं दुक्खक्खयाए, कम्मक्खयाए, मोक्खाए', बोहिलाभाए, संसारूत्तारणाए, त्ति कटु उवसंपज्जित्ताणं विहरामि।" भावार्थ -
___ उन भावों को श्रद्धापूर्वक, संशयरहित, रुचिपूर्वक क्रिया द्वारा स्पर्श करते हुए, आचरण करते हुए, उपदेश द्वारा दूसरों को आचरण करवाते हुए एवं स्वयं आचरण करते हुए, एक पक्ष, चातुर्मास या संवत्सर के अन्तर्गत हमने जो कुछ वांचन किया या कराया हो, पढ़ा हो अनुष्ठित किया गया हो, पूछा गया हो या मतिज्ञान द्वारा अवलोकित किया गया हो, सिद्धांत में जो कहा गया हैं, जो कुछ स्पष्टतः नहीं कहा गया है, या जो अव्यक्त रहा है - उस सबका चिन्तन कर कष्टमय अनुष्ठानों द्वारा उसे धारण करता हूँ। वह सब दुःखों के क्षय के लिए, कमों के विनाश के लिए, मोक्षप्राप्ति के लिए, सद्धर्म की प्राप्ति के लिए और संसार के पार पाने के लिए हो। इसी कारण से उनको तीन बार अंगीकार करके मैं विचरण करता हूँ।
“अंतोपक्खस्स जं न वाइयं न पढियं, न परियट्टियं, न पुच्छियं, नाणुपेहियं, नाणुपालियं, संते बले, संते वीरिए, संते पुरिसक्कारपडिक्कमे, तस्स आलोएमो, पडिक्कमामो निंदामो, गरिहामो, विउट्टेमो विसोहेमो अकरणयाए, अब्भुट्टेमो, अहारिहं, तवोकम्मं, पायच्छितं, पडिवज्जामो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।".
' मोक्खाए पाठ मूलग्रन्थ में नहीं दिया जाता हैं, किन्तु अन्य ग्रन्थों में यह पाठ भी मिलता
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