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________________ आचारदिनकर (खण्ड- ४ ) भावार्थ - 161 अब आज से तीसरे महाव्रत में मैं समस्त प्रकार के अदत्तादान का त्याग करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ । - प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि चौथा महाव्रत " अहावरे चउत्थे भंते ! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं सव्वं भंते ! मेहुणाओ पच्चक्खामि, से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणिअं वा नेव सयं मेहुणं सेविज्जा नेवन्नेहिं मेहुणं सेवाविज्जा मेहुणं सेवन्ते वि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भन्ते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।" भावार्थ हे भगवन् ! अब वीतराग परमात्मा ने अन्य चौथे महाव्रत में मैथुन से सर्वथा विरत होना बतलाया है, इसलिए हे गुरुवर ! समस्त प्रकार के मैथुन का निषेध करता हूँ। वह इस प्रकार है देव एवं देवी सम्बन्धी, स्त्री एवं पुरुष सम्बन्धी, बड़व (घोड़ी), अश्व आदि तिर्यंच योनि सम्बन्धी मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूंगा, अन्य किसी से भी मैथुन - सेवन नहीं करवाऊंगा और मैथुन सेवन करते हुए अन्यों की भी प्रशंसा नहीं करूंगा । जीवनपर्यन्त मन, वचन, कायारूप त्रिविध योग से और तीन करण से मैं स्वयं मैथुन का सेवन नहीं करूं, न ही दूसरों से करवाऊं और न ही अन्य किसी को करते हुए अच्छा मानूं। ( इस व्रत सम्बन्धी अगर कुछ पाप लगा हो तो ) हे भगवन् ! उस पाप का मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निंदा करता गर्हा करता हूँ तथा उसके प्रति अपनी ममत्व - बुद्धि का त्याग करता Jain Education International " से मेहुणे चउव्विहे पन्नत्ते तं जहा दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ दव्वओणं मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा खित्तओणं मेहुणे उड्डलोए वा अहोलोए वा तिरिअलोए वा कालओणं मेहुणे दिआ वा राओ वा भावओणं मेहुणे रागेण वा दोसेण वा " - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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