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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 160 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि "जं पि य .................... साया सुक्खमणुपालयंतेणं ।' इस पाठ का अर्थ प्रथम महाव्रत में कहे गए अनुसार ही है। "इहं वा भवे अन्नेसु वा भवग्गहणेसु। अदिन्नादाणं गहिअं वा गाहाविरं वा घिप्पंतं वा परेहिं समणुन्नाओ तं निंदामि गरिहामि तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं अईअं निंदामि, पडुप्पन्नं संवरेमि, अणागयं पच्चक्खामि, सव्वं आदिन्नदाणं जावज्जीवाए अणिस्सिओ हं नेव सयं अदिन्नं गिण्हेज्जा, नेवन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविज्जा, अदिन्नं गिण्हते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा, तं जहा अरिहंतसक्खिअं, सिद्धसक्खिअं, साहूसक्खिअं, देवसक्खिअं, अप्पसक्खिअं, एवं भवइ भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय विरय पडिहय पच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा। एस खलु अदिन्नादाणस्स वेरमणे।" इस पाठ में प्रथम महाव्रत के स्थान पर तृतीय अदत्तादान विरमणव्रत सम्बन्धी जो- जो गाथाएँ दी गई हैं, उनका शब्दार्थ एवं भावार्थ इस प्रकार है - “अदिन्नादाणं गहिअ वा गाहाविअं वा घिप्पंतो वा परेहिं समणुन्नाओ" भावार्थ - स्वयं ने अदत्तादान को ग्रहण किया हो या दूसरों से अदत्तादान का ग्रहण करवाया हो और ग्रहण करते हुए अन्यों की अनुमोदना की हो, तो मैं उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ। "एस खलु अदिन्नादाणस्स वेरमणे" भावार्थ - निश्चय से यह अदत्तादान विरमण नामक तीसरा महाव्रत - "हिए सुहे ......... ...... विहरामि।" इस पाठ का अर्थ पहले महाव्रत में कहे गए अनुसार ही है। "तच्चे भंते ! महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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