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आचारदिनकर (खण्ड-४)
131 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि आसायणाए, सदेव-मणुआऽसुरस्स लोगस्स आसायणाए, सव्वपाणभूयजीवसत्ताणं आसायणाए, कालस्स आसायणाए, सुअस्स आसायणाए, सुअदेवयाए आसायणाए, वायणायरियस्स आसायणाए, - जं वाइद्धं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं, पयहीणं, विणयहीणं, जोगहीणं, घोसहीणं, सुट्ठदिन्नं, दुठ्ठपडिच्छियं, अकाले कओ सज्झाओ, काले न कओ सज्झाओ, असज्झाइए सज्झाइयं, सज्झाइए न सज्झाइयं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।' भावार्थ -
मैं प्रतिक्रमण करता हूँ (सात भय से लेकर तेंतीस आशातनाओं तक जो अतिचार लगा हो उसका) सात भय के स्थानों (कारणों) से, आठ मद के स्थानों से, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियों से, उनका सम्यक् पालन न करने से, दसविध क्षमा आदि श्रमण-धर्म की विराधना से, ग्यारह उपासक की प्रतिमा से, अर्थात् उनकी अश्रद्धा एवं विपरीत प्ररूपणा से, बारह भिक्षु की प्रतिमाओं से, अर्थात् उनकी श्रद्धा, प्ररूपणा एवं आसेवना अच्छी तरह न करने से, तेरह क्रिया के स्थानों से, अर्थात् हिंसा से, पन्द्रह परमाधार्मिकों से, अर्थात् उन जैसा भाव या आचरण करने से, सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के गाथा-अध्ययन सहित सोलह अध्ययनों से, अर्थात् तदनुसार आचरण न करने से, सत्तरह प्रकार के असंयम में रहने से, अट्ठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य में वर्तने से, ज्ञातासूत्र के उन्नीस अध्ययनों से, अर्थात् तदनुसार संयम में न रहने से, बीस असमाधि-स्थानों से, इक्कीस शबलों से, बाईस परीषहों से, अर्थात् उनको सहन न करने से, सूत्रकृतांग सूत्र के तेईस अध्ययनों से, अर्थात् तदनुसार आचरण न करने से, चौबीस देवों से, अर्थात् उनकी अवहेलना करने से, पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं से, अर्थात् उनका आचरण न करने से, आचार-प्रकल्प - आचारांग तथा निशीथसूत्र के अट्ठाईस अध्ययनों से, अर्थात् मन्त्र आदि पापश्रुतों का प्रयोग करने से, अर्थात् उनकी उचित श्रद्धा एवं प्ररूपणा न करने से, बत्तीस योगसंग्रहों से, अर्थात् उनका आचरण न करने से, तेंतीस आशातनाओं से (जो कोई अतिचार लगा हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।)
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