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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 129 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि तेउकाएणं - अग्नि, विद्युत, अंगार आदि को तेजस्काय कहते पंखा, फूँक मारना, श्वासोश्वासरूप काय को वाउकाएणं वायुकाय कहते हैं। वणस्सईकाएणं - प्रत्येक एवं साधारण वनस्पतिकाय, अर्थात् एक ही शरीर में एक जीव हो, उसे प्रत्येक तथा एक जीव में अनन्तजीव हों, उसे साधारण वनस्पतिकाय कहते हैं। तसकाएणं - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय रूप जीव सकाय कहलाते हैं । "पडिक्कम मि छहिं काउलेसाए, तेउलेसाए, पम्हलेसाए, सुक्कलेसाए । “ लेसाहिं-किण्हलेसाए, नीललेसाए, भावार्थ 1 - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या इन छहों लेश्याओं द्वारा, अर्थात् प्रथम तीन अधर्म - लेश्याओं का आचरण करने से तथा बाद की तीन धर्म - लेश्याओं का आचरण न करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ । विशिष्टार्थ - लेसाहिं अस्सी से अधिक तथा एक सहस्र निषेक तक की कालावधि लेश (कालांश) कही जाती है । उस अवधि में उत्पन्न होने वाला तीव्र ध्यानरूपी चिन्तन लेश्या कहलाता है । ऐसी लेश्याएँ छः कही गई हैं। है । कृष्णलेसा - इस लेश्या में महातीव्र पाप का अनुबंध होता है । नीलसा - इस लेश्या में तीव्र पाप का अनुबंध कृष्णलेश्या की अपेक्षा कुछ कम होता है । इस लेश्या में पाप का अनुबन्ध नीललेश्या की काउलेसा अपेक्षा भी कुछ कम होता है । - तेउलेसा - तेजोलेश्या जीव में किंचित् शुभभाव आते हैं । पम्हलेसा - पद्मलेश्या में शुभभावों की प्रमुखता संमिश्रण होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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