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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 119 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि भी दिवस सम्बन्धी अतिचार लगा हो, तो वह सब पाप मेरे लिए मिथ्या हो। विशिष्टार्थ - चउकाल - दिवस एवं रात्रि के प्रथम एवं अन्तिम प्रहर धार्मिक अनुष्ठान का काल होता है, इसलिए यहां “चउकाल" शब्द आया है। उभओकालं - दिवस के प्रथम एवं अन्तिम प्रहर में। अइक्कमे, वइक्कमे अइयारे अणायारे - आधाकर्मी दोष से युक्त आहार का गृहस्थ द्वारा निमंत्रण पाकर उसे लेने के लिए लालायित होना अतिक्रमण है। वइक्कमे - उस आधाकर्मी आहार को लेने की इच्छा से जाना व्यतिक्रम है। अइयारे - उस आधाकर्मी आहार को ग्रहण करना अतिचार है। _ अणायारे - उस आधाकर्मी आहार का भक्षण करना अनाचार ये सब क्रमशः अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार एवं अनाचार नामक दोष कहलाते हैं। इन शब्दों का सर्वत्र अनुवर्तन नहीं करना है। अब साधु एक आदि संख्या के क्रम द्वारा अतिचारों का प्रतिक्रमण करे, वह इस प्रकार है - “पडिक्कमामि एगविहे असंजमे।" भावार्थ - ___ अविरतिरूप एकविध असंयम का आचरण करने से जो भी अतिचार लगा हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। विशिष्टार्थ - एगविहे असंयमे - चारित्र-विराधनारूप असंयम एक प्रकार का है। चारित्र- विराधना में सभी अतिचार आते हैं। इस प्रकार संयमपथ पर चलते हुए जो अतिचार लगे हैं, उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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