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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 114 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि तथा पसारे हों, यूका - जूं आदि शूद्र जीवों को कठोर स्पर्श द्वारा पीड़ा पहुँचाई हो, बिना यतना के, अथवा जोर से खाँसी ली हो, अथवा शब्द किया हो, यह शय्या बड़ी विषम तथा कठोर है - इत्यादि शय्या के दोष कहे हों, बिना यतना किए छींक एवं जंभाई ली हो, बिना प्रमार्जन किए शरीर को खुजलाया हो, अथवा अन्य किसी वस्तु को छुआ हो, सचित्त रज वाली वस्तु का स्पर्श किया हो - (ऊपर शयनकालीन जागते समय के अतिचार बतलाए हैं, अब सोते समय के अतिचार कहे जाते हैं) स्वप्न में विवाह तथा युद्धादि के अवलोकन से आकलता-व्याकुलता रही हो - स्वप्न में मन भ्रान्त हुआ हो, स्वप्न में स्त्री-संग किया हो, स्वप्न में स्त्री आदि को अनुरागभरी दृष्टि से देखा हो, स्वप्न में मन में विकार आया हो, स्वप्नदशा में रात्रि में भोजन-पान की इच्छा की हो या भोजन-पान किया हो - अर्थात् मैंने दिन में जो भी शयन सम्बन्धी अतिचार किया हो, वह सब पाप मेरा मिथ्या-निष्फल हो। विशिष्टार्थ - पगामसिज्जाए - प्रकाम का अर्थ है- अति और शयन का अर्थ है- सोना, अर्थात् अत्यधिक सोना। चार प्रहर तक गाढ़ निद्रा में सोने को प्रकामशय्या कहते है; अथवा यति के लिए अनुचित हो- ऐसी शय्या पर शयन आदि करना प्रकामशय्या कहलाती है, अथवा यति के लिए संस्तारक हेतु ग्राह्य उपधि की निर्धारित संख्या का अतिक्रमण करना - इसे भी प्रकामशय्या कहा गया है। निग्गामसिज्झाए - अप्रतिलेखित कंबल आदि अन्य वस्तुओं का स्पर्श करना, गुरु की शय्या का अतिक्रमण करना - इस प्रकार की दूषित शय्या निकामशय्या कहलाती है। संथाराउवट्टणाए - ऐसी शय्या, जो यति के शयन हेतु उचित हो, उसे संस्तारक कहते हैं। एक करवट लेना उद्वर्तन है। परिवट्टणाए - एक करवट से दूसरी करवट बदलना, प्रतिलेखना किए बिना करवट बदलने में अतिचार लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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