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आचारदिनकर (खण्ड- ४ )
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प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
मनोभावना है। मैं आपको मनोयोगपूर्वक मस्तक झुकाकर तीन बार
वंदन करता हूँ।
यहाँ सिरसा मत्थेण वंदामि में सिर और मस्तक इन दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है- यह पुनरूक्त दोष का हेतु है, किन्तु " आर्षत्वात् " इस वचन से सिरसा पद को वचन के लिए प्रयुक्त मानकर मन-वचन एवं काया इन त्रिकरणों से वन्दन करने के अर्थ में ग्रहण करना चाहिए ।
यहाँ गुरु का कथन इस प्रकार है - " आप सभी साधुजनों के साथ मेरा भी यह पक्ष बहुत ही कल्याणपूर्वक व्यतीत हुआ ।"
अब चैत्यवंदन एवं साधुवंदन करने हेतु द्वितीय क्षमापना पाठ इस प्रकार है -
“पुव्विं चेइयाई वंदित्ता नमसित्ता तुज्झहूणं पायमूले विहरमाणेणं जे केइ बहुदेसिया साहूणो दिट्ठा समणा वा असमणा वा गामाणुगामं दुज्जमाणा वा राइणियाओ संपुच्छंति उमराइणियाओ वंदति अज्जयाओ वंदंति अज्जियाओ वंदति सावयाओ वंदंति सावियाओ वंदंति अहंपि निस्सल्लो निक्कसाओ तिकट्टु सिरसा मणसा मत्थेण वंदामि । " भावार्थ -
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हे पूज्य ! आपके सान्निध्य में ( पादमूल में ) विहार करते हुए पूर्व में अनेकों चैत्य आदि की वंदना की । अनेक देशों के साधुओं, श्रमणों और तापसों को देखा एवं ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए रातनिकों द्वारा सम्यक् प्रकार से पूछते हुए एवं अवरातनिकों द्वारा वंदन करते हुए देखा है। वर्तमान में भी मुनिजन और साध्वियाँ, श्रावक और श्राविकाएँ आपको वंदन करते हैं। मैं भी आपको निशल्य और निष्कषाय होकर मन-वचन और काया से मस्तक झुकाकर वंदन करता हूँ । विशिष्टार्थ
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समाणावा असमाणावा व्याख्या में श्रमण का अर्थ भूचारी मुनियों से तथा असमाणा शब्द का अर्थ आकाशचारी मुनियों से लिया गया है ।
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