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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) . 110 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयंपि।।३।। खामेमि सव्वजीवे सव्वेजीवा खंमतु मे। मित्ति मे सव्वभूएसु वेरं मज्झं न केणई।।३-४।। भावार्थ - ____ आचार्य-उपाध्याय-शिष्य-साधर्मिक-कुल एवं गण - इनके ऊपर मैंने जो कुछ कषाय किए हों, उन सबके हेतु मन-वचन और काया से क्षमायाचना करता हूँ। हाथ जोड़कर और मस्तक चरणों पर रखकर सब पूज्य मुनिराजों से मैं अपने अपराध की क्षमा चाहता हूँ और मैं भी उनको क्षमा करता हूँ। धर्म में चित्त को स्थिर करके सम्पूर्ण षड्जीव निकाय के जीवों से मैं अपने अपराध की क्षमा चाहता हूँ और स्वयं भी उनके अपराध को हृदय से क्षमा करता हूँ। यदि किसी ने मेरा कोई अपराध किया हो, तो मैं उसको क्षमा करता हूँ, वैसे ही यदि मैंने भी किसी का कोई अपराध किया हो, तो वे भी मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ मित्रता है, किसी के भी साथ मेरी शत्रुता नहीं है। पाक्षिक-प्रतिक्रमण आदि के समय निम्न सूत्र से क्षमापना करे “पीअं च मे जं भे हट्ठाणं तुट्ठाणं अप्पाणं कायं अभग्ग जोगाणं सुसीलाणं सुब्बयाणं सायरियोवज्झायाणं नाणेणं दंसणेणं चरित्तेणं तवसा अप्पाणं भावयमाणाणं बहुसुभेण दिवसो पोसहो, पक्खो वइक्तो अन्नो भे कल्लाणेणं पज्जुवइट्ठिओ तिकट्ठ सिरसा मणसा मत्थेण वंदामि ।।" भावार्थ - निरोग चित्त की प्रसन्नतापूर्वक, संयम आदि द्वारा काय एवं आत्मा को भावित करने वाले मन-वचन एवं काया के पूर्ण योगवाले, अर्थात् पूर्णतः संयम का पालन करने वाले, शीलांगों सहित सुंदर पंच महाव्रतों के धारक आचार्य एवं उपाध्यायों सहित ज्ञान-दर्शन, चारित्र एवं तप द्वारा आत्मा को भावित करने वाले आपको वन्दन करता हूँ। हे भगवन् ! आपका दिवस और पक्ष बहुत ही सुखपूर्वक व्यतीत हुआ और आने वाला दूसरा पक्ष भी कल्याणकारी हो - ऐसी मेरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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