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आचारदिनकर (खण्ड-४)
107 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि ४. स्वाध्याय - वाचना, पृच्छना, आम्नाय एवं आगम - इन
चारों द्वारा अध्ययन करना। ५. ध्यान - धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान करना।
इन सबकी विस्तृत व्याख्या आगमों से जानें। विस्तार के भय से यहाँ इनकी व्याख्या नहीं की गई है।
६. उत्सर्ग - काया का उत्सर्ग करना। इसकी विस्तृत व्याख्या आगे की गई है। - ये छः आभ्यन्तर-तप हैं। बाह्यतप के छः भेद इस प्रकार हैं -
१. अनशन - चतुर्विध आहार का त्याग। इसमें उपवास . आदि तप किए जाते हैं। २. ऊनोदरी - अपनी भूख से कुछ कम आहार करना।
इसमें एक से लेकर आठ कवल तक के परिमाण को
अन्तर्भूत किया गया है, अर्थात् इतने कवल कम खाना। ३. वृत्तिसंक्षेप - दिन में बार-बार भोजन करने का त्याग।
इस तप में एकासन आदि को अन्तर्भूत किया गया है। ४. रसत्याग - विकृति आदि का त्याग करना। इस तप में
निर्विकृति, आयम्बिल आदि आते हैं। ५. कायक्लेश - लोच करना, नग्न रहना, आतापना लेना
आदि परीषहों को सहन करना। ६. संलीनता - हस्तपाद आदि अवयवों का संगोपन करना
तथा गमनागमन की प्रवृत्ति में संकोच करना। - ये छ:
बाह्यतप हैं। वीर्याचार के तीन अतिचार इस प्रकार हैं - “अणिगृहियबलविरिओ पडिक्कमे जो अ जस्स आयारो।।
जुंजइ य जहाठाणं नायव्वो वीरियायारो।" मनोबल एवं कायबल का गोपन किए बिना उद्यमवंत होकर जो शास्त्रानुसार धर्म-क्रिया में यथाशक्ति प्रवृत्ति करे, उसके उस आचार को वीर्याचार कहते हैं।
स्वयं की तप एवं वैयावृत्य करने की शक्ति का गोपन किए बिना जो जिसका अतिचार है, यथास्थान उसका प्रतिक्रमण करना,
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