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आचारदिनकर (खण्ड-४) 106 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि
१. प्रवचन देना २. धर्मकथा करना ३. वाद करना ४. निमित्तशास्त्र का ज्ञान होना ५. तपस्या करना ६. विविध विद्याओं में निष्णात होना ७. सिद्धियों का धारक होना ८. कवि होना - श्रावकों को भी सातों क्षेत्रों में विपुल द्रव्य का व्यय करके, अर्हत् मत के प्रत्यनीक, अर्थात् विरोधी मतों का अपलाप कर एवं स्वमताश्रितों का पोषण कर जिनशासन की प्रभावना करनी चाहिए।
चारित्राचार के आठ अतिचार इस प्रकार हैं -
“पणिहाणजोगजुत्तो पंचहि समिईहिं तिहिं गुत्तीहिं। एस चरित्तायारो अट्ठविहो होई नायव्वो।"
__- अर्थात् सावधानीपूर्वक मन, वचन और काया के योग से पाँच समिति एवं त्रिगुप्ति के पालनरूप चारित्राचार आठ प्रकार का होता है।
पाँच समिति, तीन गुप्ति - इस प्रकार इन आठों का अत्यन्त सावधानी एवं मन-वचन-काया से पालन करना, चारित्राचार कहलाता है। चारित्र का पालन योग द्वारा होना चाहिए तथा चारित्र को पालने में कभी भी असमाधि नहीं होनी चाहिए।
अब तपाचार के बारह भेद बताते है -
"बारह विहम्मिवि तवे सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिट्ठी। अगिलाइ अणाजीवी नायव्वो सोतवायारो।"
- अर्थात् सम्यक् बुद्धिवाले (तीर्थंकर आदि ने तप के छ: आभ्यंतर और छः बाह्य - इस प्रकार बारह भेद कहे हैं।) इनमें से किसी भी तप के करने से कातरता आए, वैसा तप नहीं करना चाहिए, अथवा तप द्वारा आजीविका नहीं चलाना चाहिए - यह तपाचार है।
आभ्यन्तर-तप के छः भेद हैं - १. प्रायश्चित्त - दसविध प्रायश्चित्तों का हमेशा स्मरण एवं
पालन करना। २. विनय - गुरु के प्रति विनम्र व्यवहार करना। ३. वैयावृत्य - देव, गुरु, ज्ञानोपकरण एवं मुनिजनों आदि की
सेवा करना।
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