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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 101 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि सिक्खावयाणं द्वादशी विहस्स सावग धम्मस्स जं खंडिय जं......“ शेष पूर्ववत् यह पाठ आता है। ___पंचण्हमणुव्वयाणं - स्थूलप्राणातिपात, स्थूलमृषावाद, स्थूलअदत्तादान, स्थूलमैथुन एवं स्थूलपरिग्रहरूप पाँच अणुव्रतों की। ___तिण्हंगुणव्वयाणं - दिशापरिमाणव्रत, अनर्थदण्डत्याग-व्रत एवं भोगोपभोगमान रूप तीन अणुव्रत। चउण्हं सिक्खावयाणं - सामायिकव्रत, देशावकाशिकव्रत, पौषध व्रत, अतिथि संविभागव्रतरूप - ये चार शिक्षाव्रत। इस प्रकार बारह प्रकार के श्रावकधर्म का जो खण्डन किया हो ...... इत्यादि सब पूर्ववत् ही हैं। यह आलोचना का पाठ है। अब यति (साधु) के रात्रि-आलोचनासूत्र की व्याख्या करते हैं "ठाणे कमणे चंकमणे आउत्ते अणाउत्ते हरियकाय संघट्टे बीयकाय संघटे थावरकाय संघटे छप्पईयासंघट्टणाए ठाणाओ ठाणं संकामिआ सव्वस्सवि देवसिय दुच्चिंतिय दुब्भासिय दुचिट्ठिय इच्छाकारेण संदिसह भगवन् इच्छं तस्स मिच्छामि दुक्कडं।" भावार्थ - हे भगवन् ! आपकी इच्छापूर्वक आप मुझे दिवस सम्बन्धी दोषों की आलोचना करने की आज्ञा प्रदान करें। मैं आपकी यह आज्ञा स्वीकार करता हूँ। स्थान पर, चलते समय, कहीं दूर जाते समय, यत्नापूर्वक या अयत्नापूर्वक, हरितकाय, बीजकाय, स्थावरकाय एवं षट्पदी आदि का संस्पर्श हुआ हो, जीवों को एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर रखा हो, मन से दुष्चिंतन किया हो, वचन से दुष्टभाषण किया हो, एवं काया से दुष्चेष्टा की हो, तो मेरा वह सब पाप मिथ्या हो। ____ अब यति (साधु) के दैवसिक आलोचना-सूत्र की व्याख्या करते हैं - “संथारा उवत्तणाए परियत्तणाए आउंटणपसारणाए छप्पईयासंघट्टणाए सव्वस्सवि राईय दुच्चिंतिय दु......“ शेष पूर्ववत्। भावार्थ - हे भगवन् ! मैं चाहता हूँ, आप इच्छापूर्वक मुझे रात्रि सम्बन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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