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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 84 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि लिख रहे हों, परमेष्ठीमंत्र का जप कर रहे हों, ध्यान आदि कर रहे हों, अर्थात् इन कार्यों में व्यस्त हों, तो उन्हें वंदन नहीं करना चाहिए। पराभूत - जिस समय गुरु मिथ्यादृष्टिदेव, दानव एवं मानवों के दुर्वचनों एवं उपसों से पराभूत बने हुए हों, उस समय भी उन्हें वंदन नहीं करना चाहिए। मतान्तर से इसका अर्थ परांमुख, अर्थात् सम्मुख बैठे हुए न हों - ऐसा भी लिया गया है। प्रमत्त - गुरु निद्रा, हास्य, कलह, तृष्णा आदि प्रमाण से युक्त हो, तो उस समय भी उन्हें वन्दन नहीं करना चाहिए। आहार - गुरु जिस समय आहार कर रहे हों, पानी पी रहे हों, औषधि आदि का सेवन कर रहे हों, उस समय भी उन्हें वंदन नहीं करना चाहिए। नीहार - गुरु जिस समय मल-मूत्र का उत्सर्ग कर रहे हों, या करने के लिए जा रहे हों, पैर धो रहे हों, वस्त्र-प्रक्षालन आदि कार्य कर रहे हों तो, उस समय भी उन्हें वंदन नहीं करना चाहिए। उपर्युक्त पाँच प्रतिषेधित स्थितियों में कभी भी वन्दन नहीं करना चाहिए। गुरु सम्बन्धी तेंतीस आशातना का विवेचन निम्नांकित है - (१-३) पुरओ - गुरु के आगे चलना, खड़े रहना या बैठना (४-६) पक्खासन्न - गुरु के पीछे अति समीप चलना, खड़े रहना या बैठना (७-६) गंता चिट्ठण निसीयण - गुरु के दाएं/बाएं चलना, खड़े रहना या बैठना (१०) आयमण - गुरु के साथ स्थण्डिलभूमि हेतु बाहर जाने पर उनके आने के पूर्व ही हाथ-पैर मुँह आदि धो लेना। (११) आलोअण - स्थंडिलादि बहिर्भूमि से लौटकर गुरु से पहले गमनागमन विषयक आलोचना कर लेना। . (१२) अप्पडिसुणण - रात्रि में गुरु पूछे कि कौन सो रहा है? कौन जाग रहा है? तब जाग्रत होने पर भी जवाब न देना। (१३) पुव्वालवण - आए हुए साधुओं एवं श्रावकों आदि के साथ गुरु से पूर्व शिष्य का बातचीत करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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