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जत्ताय-स्थान है । इस प्रकार बन्दा देण २. अम। वंदन के
आचारदिनकर (खण्ड-४) 81 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि अनुज्ञापना-स्थान है, “खमणिज्जो "- यह तृतीय अव्याबाध-स्थान है, "जत्ताभे"- यह चौथा यात्रा-स्थान है, “जवणिज्जंचभे"- यह पाँचवां यापनीय-स्थान है तथा “खामेमि खमासमणो"- यह छठवां अपराधक्षामणा-स्थान है। इस प्रकार वन्दन के ये छः स्थान हैं।
___गुरु के छः वचन होते हैं - १. छंदेण २. अणुजाणामि ३. तहत्ति ४. तुभंपि ५. वट्टई एवं ६. अहमवि खामेमि तुमे। वंदन के योग्य आचार्यादि के कथन भी छः होते हैं।
षट्गुण इस प्रकार हैं - १. विनयोपचार २. मानभंग ३. गुरुजनों की पूजा ४. तीर्थंकर की आज्ञा का पालन ५. श्रुतधर्म की आराधना तथा ६. क्रियाकारित्व। विनयोपचार से विनय की प्राप्ति होती है। वन्दन-क्रिया से चित्त में रहे हुए अभिमान का नाश होता है। वन्दन-क्रिया से गुरुजनों की भावपूजा होती है। परमात्मा द्वारा निर्दिष्ट गुरुभक्ति करने से तीर्थंकर की आज्ञा का पालन होता है। श्रुतधर्म की आराधना होती है (क्योंकि श्रुतज्ञान वन्दनपूर्वक ही ग्रहण किया जाता है)। वन्दन की क्रिया करने से सदाचार का निर्वाह होता है। वन्दन के पाँच अधिकारी इस प्रकार हैं - १. आचार्य २. उपाध्याय ३. प्रवर्तक ४. स्थविर एवं ५. रत्नाधिक। इनको वंदन करने से कर्मों की निर्जरा होती है। आचार्य और उपाध्याय की व्याख्या तो संसार में प्रसिद्ध ही है, अतः यहाँ प्रवर्तक की व्याख्या करते हैं। प्रवर्तक गच्छ और संघ में सभी को उपदेश देकर अपनी पुण्यप्रवृत्ति का निर्वाह करता है। कहा भी है - उपस्थापन, प्रभावना, विभिन्न बर्हि क्षेत्रों की यात्रा, श्रुत का प्रसार, श्रुत, अर्थ और दोनों के ज्ञाता प्रवर्त्तकगण में तिलक के समान होते हैं। स्थविर का अर्थ हैजो सभी संयतिजनों को संयम में स्थिर करता है और स्थिर करने के साथ-साथ स्वयं भी विषय-भोगों से विमुख होकर कठिन तप आदि की प्रवृत्ति करता है, वह स्थविर कहा जाता है, अथवा जो साधना में अस्थिर होता है, उसे अपनी साधना के बल से स्थिर करने वाला स्थविर कहा जाता है। रत्नाधिक उसे कहते हैं, जो गुणरूपी रत्नों की अपेक्षा श्रेष्ठ होता है, अर्थात् जो दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ हो। इन सभी को किया जाने वाला वन्दन निर्जरा, अर्थात् कर्मक्षय का हेतु होता है।
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