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आचारदिनकर (खण्ड-४)
69 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि आदि द्वारा सम्यक्त्व तथा निरूपसर्ग स्थिति (मोक्ष) की प्राप्ति हो - इस उद्देश्य से बढ़ती हुई श्रद्धा, बुद्धि, धृत्ति, धारणा एवं अनुप्रेक्षापूर्वक मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। विशिष्टार्थ -
अरिहंत चेइयाणं - यहाँ चैत्य शब्द का तात्पर्य वर्तमान काल के चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओं से है और जहाँ सव्वलोए अरहंत चेइयाणं शब्द है, उसमें तीनों लोकों में जो सर्वश्रेष्ठ हैं - ऐसे गत, अनागत, वर्तमान तीर्थंकरों एवं विहरमाणों की प्रतिमाओं का समावेश किया गया है।
वंदणवत्तियाए - नमस्कार करने के लिए। पूयणवत्तियाए - अर्चना करने के लिए। सक्कारवत्तियाए - सत्कार देने के लिए।
सम्माणवत्तियाए - मन, वचन एवं काया के सहचर्य से लोक ' में जो प्रत्यक्ष है - ऐसा द्रव्य एवं भाव-पूजारूप सम्मान करने के लिए।
बोहिलाभवत्तियाए - बोधिलाभ एवं सम्यक्त्व-प्राप्ति की जो वृत्ति बताई गई है, उस वृत्ति के माध्यम से बोधिलाभ की प्राप्ति के लिए।
निरूवसग्गवत्तियाए-उपद्रव से रहित होने के लिए (अर्थात् जन्म-मरणरूप उपद्रव से रहित होने के लिए)।
सद्धाए - श्रद्धापूर्वक मेहाए - बुद्धिपूर्वक धिईए - संतोषपूर्वक (संतुष्टिपूर्वक)
धारणाए - जो सुना है एवं अध्ययन किया है, उसको स्मृति में रखने के लिए।
__ अणुप्पेहाए - इच्छित वस्तु का हमेशा स्मरण करना, अर्थात् चिंतन करना अनुप्रेक्षा कहलाती है, ऐसी उस अनुप्रेक्षा के लिए।
वड्डमाणीए - जो प्रतिक्षण वृद्धि को प्राप्त कर रहा हो, ऐसे गुणों की वृद्धि के लिए।
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