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________________ आचारदिनकर (खण्ड-४) 68 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि विविध प्रकार की व्युत्पत्तियों एवं विविध प्रकार की कथा-संप्रदायों के आधार पर इन नामों की व्याख्या की गई है। विस्तृत रूप से इनके सम्बन्ध में जानते हुए भी ग्रन्थ- विस्तार के भय से उन्हें यहाँ प्रकाशित नहीं किया गया है, क्योंकि यह आचारग्रन्थ है, व्याख्याग्रन्थ नहीं। यहाँ समझाने के लिए क्वचित् उनकी व्याख्या कर सकते हैं। एवं . . . पसीयंतु - इस प्रकार मेरे द्वारा प्रशंसित चौबीस तीर्थकर तथा अन्य जिनवर, जिन्होंने सर्व प्रकार के रज-मल को दूर किया है तथा सम्पूर्ण रूप से जिनकी जरावस्था एवं मृत्यु नष्ट हो चुकी है, वे मुझ पर कृपा करें। कित्तीय . . . दिंतु - मेरे द्वारा प्रशंसित, वन्दित तथा पूजित तीर्थकर परमात्मा, जो लोक में उत्तम हैं, सिद्ध हैं, वे मुझे आरोग्य, बोधिलाभ, सर्वोत्कृष्ट समाधि प्रदान करें। निम्न गाथा में सिद्धा शब्द से जिनेश्वरों के मुक्तिस्थान का वर्णन किया गया है - चंदेसु . . दिसन्तु - चंद्र से भी अधिक निर्मल, सूर्य से भी अधिक प्रकाशवान्, सागर से भी अधिक गंभीर-ऐसे सिद्ध परमात्मा मुझे सिद्धिपद की प्राप्ति कराएं। “सप्तमी निर्धारणे" इस प्राकृतसूत्र से पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी का उपयोग करते हैं। कुछ लोग सप्तमी विभक्ति के अनुसार भी इसकी व्याख्या करते हैं। चतुर्विंशतिस्तव के प्रत्येक पद में विश्रामरूप संपदा है। अब अर्हत् चैत्यस्तव की व्याख्या करते हैं - "अर्हत् चेइआणं करेमि काउसग्गं। वंदण-वत्तियाए पूअण-वत्तियाए सक्कार-वत्तियाए सम्माण-वत्तियाए बोहिलाभ-वत्तियाए निरूवसग्ग-वत्तियाए सद्धाए मेहाए थिईए धारणाए अणुप्पेहाए वड्ढमाणीए ठामि काउसग्गं।" भावार्थ - अरिहंत प्रतिमाओं के आराधन हेतु मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। इनके वन्दन, पूजन, सत्कार और सम्मान का अवसर मिले तथा वन्दन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001678
Book TitlePrayaschitt Avashyak Tap evam Padaropan Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Principle, Ritual, Vidhi, M000, & M010
File Size7 MB
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