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आचारदिनकर (खण्ड-४)
65 प्रायश्चित्त, आवश्यक एवं तपविधि आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तम दिंतु।।६।। चंदेसुनिम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागरवरगंभीरा सिद्धा-सिद्धिं मम दिसंतु।७।।" भावार्थ -
चौदह राजलोकों में स्थित सम्पूर्ण वस्तुओं के स्वरूप को यथार्थरूप में प्रकाशित करने वाले, धर्मरूप तीर्थ को स्थापन करने वाले, राग-द्वेष के विजेता तथा त्रिलोक पूज्यों - ऐसे चौबीस केवलज्ञानियों की मैं स्तुति करूंगा। ऋषभदेव, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनंदन स्वामी, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ तथा चन्द्रप्रभ जिनेश्वरों को मैं वन्दन करता हूँ। सुविधिनाथ, जिनका दूसरा नाम (पुष्पदन्त), शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ तथा शान्तिनाथ जिनेश्वरों को मैं वन्दन करता हूँ। कुंथुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रतस्वामी, नमिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ तथा वर्द्धमान (श्री महावीरस्वामी) जिनेश्वरों को मैं वन्दन करता हूँ। इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुति किए गए, कर्मरूपी मल से रहित और जन्म (जरा) एवं मरण से मुक्त चौबीस जिनेश्वर देव तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हों। जो समस्त लोक में उत्तम हैं और मन, वचन, काया से स्तुति किए हुए हैं, वे मेरे कर्मों का क्षय करें, मुझे जिनधर्म की प्राप्ति कराएं तथा उत्तम भाव-समाधि प्रदान करें। चन्द्रों से अधिक निर्मल, सूर्यों से अधिक प्रकाश करने वाले, स्वयंभूरमण समुद्र से अधिक गम्भीर - ऐसे सिद्ध भगवन्त मुझे सिद्धि (सिद्धपद) प्रदान करें। विशिष्टार्थ -
लोगस्स उज्जोअगरे - परमज्ञान का उपदेश देने के कारण, संशयों का छेदन करने के कारण तथा चौदह राजलोक के सर्वपदार्थों को प्रकाशित करने से, अर्थात् उनके स्वरूप का प्रकटन करने से उन्हें लोक-उद्योतकर कहा गया है।
धर्मतित्थयरे - संसार-सागर से पार करने वाले धर्मरूपी तीर्थ की स्थापना करने के कारण उन्हें धर्म-तीर्थकर कहा गया है।
जिणे - राग-द्वेष आदि शत्रुओं से विजित होने के कारण उन्हें जिन कहा गया है।
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