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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 49 उनके तेंतालीस प्रतिद्वारों का विस्तृत चालीस अधिकारसूत्रपदों की सहायता से विवेचन उपलब्ध है। किया गया है। १. प्रथम अर्हताद्वार में वैराग्यभावों से युक्त राजा से लेकर जन-सामान्य तक को आराधना के योग्य कहा गया है। २. दूसरे लिंगद्वार में गृहस्थ एवं साधु के सामान्य एवं विशेष लिंग का वर्णन करते हुए साधु के निम्न पांच लिंगों का वर्णन किया हैमुहपत्ति, रजोहरण, शारीरिक - शुश्रूषा नहीं करना, अचेलत्व एवं केश - लोच । ३. शिक्षाद्वार में शिक्षा के तीन भेदों का वर्णन करते हुए क्रिया सहित ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। ४. विनयद्वार में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं उपचार - इस तरह पाँच प्रकार के विनय कहकर सबके आठ-आठ भेदों का उल्लेख किया गया 1 ५. समाधिद्वार में द्रव्य समाधि एवं भावसमाधि - ऐसे दो वर्गों में विभक्त करके मन को जीतना ही भाव समाधि है। ६. मनोनुशास्तिद्वार में मन को एकाग्र करने के उपदेश उपलब्ध हैं। ७. Jain Education International अनियतविहारद्वार में १. इसमें व्याधि, जरावस्था एवं मरणावस्था के उत्पन्न होने पर ही भक्त प्रत्याख्यान करने को कहा गया T २. इसमें भी मुहपत्ति के अतिरिक्त अन्य चारों लिंगों का उल्लेख है, साथ ही इसमें पुरुष को प्रारम्भ में ही एवं स्त्री को अन्त में औत्सर्गिक- लिंग (नग्नावस्था ) धारण करना होता है । ३. इसमें प्रतिदिन श्रुत का अध्ययन करने से व्यक्ति जीवादि पदार्थों का प्रमाण एवं नय के अनुसार निरूपण करने में कुशल होता है, ऐसा उल्लेख है। ४. भगवती आराधना में आठ प्रकार के अशुभ कर्मों को विनय के द्वारा दूर करने का उल्लेख है। वे आठ द्वार काल, विनय, उपधान आदि हैं। ५. समाधि अधिकार में मन को स्थिर रखने का उल्लेख है, इसमें अलग से मनोनुशास्ति का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। ६. इसमें साधु को एक स्थान For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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