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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 47
करना। जिस प्रकार नगर की चारों दिशाओं में चार द्वार हों, तो उसमें प्रवेश करना सबके लिए सरल होता है; उसी प्रकार आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला में आराधकों के लिए समाधिमरण या अन्तिम साधना में प्रवेश करने हेतु चार मूलद्वार बताए हैं। उनके अनुसार इन चार मूलद्वारों का आधार लेकर जो भी आराधक अन्तिम आराधना करता है, उन सबके लिए समाधिमरण की साधना अति सरल हो जाती है। संवेगरंगशाला के समान ही दिगम्बर- परम्परा में भगवती आराधना नामक समाधिमरण पर एक सुन्दर ग्रन्थ है तथा संवेगरंगशाला से लगभग ५०० वर्ष पूर्व लिखा गया है। आगे हम इन दोनों ग्रन्थों की विषयवस्तु का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं।
संगवेरंगशाला की विषयवस्तु निम्नानुसार है:
आराधना
सामान्य आराधना
ज्ञान दर्शन
+
परिकर्म विधि
9. अर्हताद्वार
२. लिंगद्वार
३. शिक्षाद्वार
४. विनयद्वार
५. समाधिद्वार
चरित्र तप आराधना ↓
परगण संक्रमण
६. मनोनुशास्तिद्वार ६. उपसम्पदाद्वार ७. अनियत. विहारद्वार ७. परीक्षाद्वार ८. राजद्वार ८. प्रतिलेखनाद्वार
६. परिणामद्वार
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9. दिशाद्वार
१. आलोचनाद्वार
२. क्षामणाद्वार
२. शय्याद्वार
३. अनुशास्तिद्वार
३. संस्तारकद्वार
४. परगण गवेषणाद्वार ४. निर्यापकद्वार
५. सुस्थित ( निर्यापक) ५. दर्शनद्वार गवेषणाद्वार
६. पृच्छाद्वार
१०. प्रतिपृच्छाद्वार
१०. त्यागद्वार
११. मरणविभक्तिद्वार
१२. अधिगत (पण्डित) मरणद्वार १३. श्रेणिद्वार
संक्षिप्त आराधना +
ममत्व उच्छेद
+
६. हानिद्वार
७. प्रत्याख्यानद्वार
८. क्षमापनाद्वार
६. क्षामणाद्वार
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विशेष आराधना
विस्तृत आराधना +
समाधि लाभ +
१ अनुशास्तिद्वार
२. प्रतिपत्तिद्वार
३. सारणाद्वार
४. कवचद्वार
५. समताद्वार
६. ध्यानद्वार
७. लेश्याद्वार
८. आराधना का
फलद्वार ६. शरीर का त्यागद्वार
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