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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 29
२. दूसरे प्रतिपत्ति-द्वार में प्रतिपत्ति का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि निर्यापक आचार्य की स्तुतिपूर्वक कृतज्ञभाव से पूर्व अनुशास्ति को स्वीकार करने के पश्चात् क्षपक को तिविहार, अथवा अन्त में चोविहार अनशन को स्वीकार करना चाहिए। इसके साथ ही इस द्वार में अनशन स्वीकार करने की विधि का भी निर्देश है। यदि कोई गृहस्थ अनशन स्वीकार करता है, तो पंचाचार की आलोचना एवं श्रीसंघ से क्षमायाचना करना चाहिए। इसके पश्चात् आगम की आशातना का,वीर्य के गोपान का, मिथ्यात्व के सेवन का एवं जड़-चेतन के प्रति राग का तथा कषायपूर्वक किए हुए पापों का प्रतिक्रमण करने का निरूपण किया गया है। इस द्वार में धर्म को, अथवा अरिहंतदेव की वाणी को, अमृतपान की तरह श्रवण करने का सुन्दर एवं व्यवस्थित विवेचन किया गया है। ३. तीसरे सारणाद्वार में निर्यापक आचार्य के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यदि क्षपक को वात-पित्त के प्रकोप से, अथवा मोह आदि वासनाओं से विघ्न उत्पन्न हो, तो निर्यापक आचार्य द्वारा उनका उचित उपचार किया जाना
चाहिए।
४. चौथे कवचद्वार में यह बताया गया है कि समाधिमरण ग्रहण करने वाले क्षपक को चारित्रमोहनीय-कर्म के उदय से विवाह आदि करने के परिणाम (भाव) पैदा हों, तो उसके भावों को स्थिर करने के लिए अनशन धारण करने वाले
अनेक मुनियों, गृहस्थों अथवा तिर्यचों के विविध दृष्टान्तों का उसके समक्ष निरूपण किया जाना चाहिए। उसे यह बताना चाहिए कि अनशन से अनन्तगुना सुख की प्राप्ति होती है। ५. पाँचवें समताद्वार में क्षपक द्वारा बाह्य-आभ्यन्तर परिषहों को पराजित करते हुए सर्व विषयों के राग -द्वेष को त्यागकर समभाव में रमण करने का निरूपण
६. छठवें ध्यानद्वार में साधक क्षपक आर्तध्यान -रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान-शुक्लध्यान में रमण करे, ऐसा निरूपण है। साथ ही ध्यान के चार भेद, ध्यान का स्वरूप तथा अन्त में शरीर बल के क्षीण हो जाने पर निर्यापक के कर्तव्यों का व्यवस्थित विवेचन किया गया है। ७. सातवें लेश्याद्वार के अन्तर्गत छः लेश्याओं की चर्चा के साथ उन लेश्याओं के स्वरूप पर जम्बूभक्षक तथा चोरों के दृष्टांत का निरूपण उपलब्ध है। इसके पश्चात् इसमें लेश्या के लिए परिणामशुद्धि करने का एवं परिणामशुद्धि के लिए कषाय मन्द करने का, तथा कषाय मन्दता के लिए रागादि के त्याग करने का
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