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________________ 446 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री अन्यथा मेरे पूछने पर कुछ तो कहता। इस प्रकार वह कुविकल्पों के कारण तीव्र क्रोध से उबल पड़ा और प्रभु का बहुत तिरस्कार कर उन्हें मारने के लिए दौड़ा। उस समय सौधर्मेन्द्र ने अपने अवधिज्ञान का प्रयोग किया तथा प्रभु की ऐसी अवस्था देखकर शीघ्र देवलोक से नीचे आया और वहाँ आकर ग्वाले को रोका। फिर उसने प्रभु की तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया तथा भक्तिपूर्वक कहने लगा- "भगवन्! आज से बारह वर्ष तक आपको घोर उपसर्ग होंगे। अतः, हे प्रभु! आप मुझे आज्ञा दीजिए, जिससे मैं आपके साथ रहकर आपकी सेवा कर सकूँ। मैं आपकी साधना में आनेवाले उपसगों एवं मनुष्य, तिर्यच और देवों द्वारा कृत विघ्नों को दूर करूंगा। आप मुझे अपने पास रहने के लिए आज्ञा प्रदान कीजिए।" प्रभु ने कहा- "हे देवेन्द्र! तू यह कह रहा है, किन्तु ऐसा कदापि न हुआ है, न होता है और न होगा। इस अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हुए जीवों ने स्वयं जिन कर्मों का बन्ध किया है, उन कर्मों का क्षय भी स्वयं को ही करना होगा। पुनः, उन कर्मों की निर्जरा भी दुष्कर तपस्या के बिना सम्भव नहीं है। कर्माधीन जीव अकेला ही सुख-दुःख का अनुभव करता है, अन्य तो निमित्तमात्र हैं।" इस प्रकार देवेन्द्र को कहकर प्रभु अकेले ही अपने दुःसह परीषहों को सहन करने में तत्पर बने। वीर परमात्मा ने भी अकेले ही अपने पूर्वबद्ध कर्मों के विपाक को सहन कर शिवसुख को प्राप्त किया, अतः आराधक को भी इसी प्रकार एकत्वभावना का चिन्तन करना चाहिए। भगवान महावीर के कानों में कीलें ठोकने की घटना का सर्वप्रथम उल्लेख आवश्यकनियुक्ति के सामायिक अध्ययन की गाथा ५२५ में मिलता है। इसके पश्चात् इस घटना का उल्लेख आवश्यकचूर्णि में अति विस्तार से उपलब्ध होता है। आवश्यकचूर्णि के पश्चात् महावीर के जीवन-चरित्र सम्बन्धी विविध ग्रन्थों में भी इस घटना का उल्लेख हमें मिलता है। सम्भवतः, जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत कथानक आवश्यकनियुक्ति से ही ग्रहण किया हो- ऐसी सम्भावना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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