________________
10 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
१०६६ तक राज्य किया। इसके बाद उसके पुत्र वल्लभराज और तत्पश्चात् दुर्लभराज ने राज्य किया। वल्लभराज का राज्यकाल अधिक लम्बा नहीं रहा। ऐसा माना जाता है कि शीतला के प्रकोप से उसकी मृत्यु चामुण्डराय के वानप्रस्थीय जीवन काल में ही हो गई थी। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इस राजवंश में अधिकांश राजाओं ने अपने जीवनकाल में ही पुत्रों को राज्य देकर अपने को धर्मसाधना से जोड़ लिया था। यहाँ हमारा प्रयोजन केवल इतना बताना ही है कि दुर्लभराज और जिनेश्वरसूरि समकालीन थे; अतः दुर्लभराज के द्वारा जिनेश्वरसूरि को दिया गया "खरतर विरुद" जिनचन्द्रसरि की प्रस्तुत कृति की रचना के पूर्व ही दिया गया था। जिनेश्वरसूरि और जिनचन्द्रसूरि की यही परम्परा आगे खरतरगच्छ के नाम से अभिहित हुई। वर्धमानसूरि की इस परम्परा में जिनचन्द्रसूरि चतुर्थ पट्टधर हुए, इसी कारण आगे चलकर खरतरगच्छ परम्परा में यह नियम बना कि चौथा आचार्य जिनचन्द्रसूरि के नाम से जाना जाएगा। इससे यह भी सिद्ध होता है कि संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि खरतरगच्छ परम्परा के ही आद्य आचार्यों में से एक थे। खरतरगच्छ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम अभिलेखीय साक्ष्य जेसलमेर दुर्ग के पार्श्वनाथ मन्दिर के वि.सं. ११४७ के शिलालेख में मिलता है। उसमें स्पष्ट रूप से लिखा है कि खरतरगच्छ जिनशेखरसूरिभि; इनके पश्चात् क्रमशः विक्रम संवत् ११६६, ११७१, ११७४, ११८१ के अभिलेखों में भी खरतरगच्छ का उल्लेख पाया जाता है। वि.सं. ११६६ वि.सं. ११७४ और वि.सं. ११८१ के अभिलेखों में क्रमशः खरतरगच्छे सुविहिता, गणाधीश्वर जिनदत्तसूरि और खरतरगणाधीश्वर श्री जिनदत्तसूरिभिः उल्लेख है, अतः यह स्पष्ट है कि खरतरगच्छ विक्रम संवत् ११४७ में अस्तित्व में था। प्रस्तुत कृति इस अभिलेख के लगभग २२, अथवा मतान्तर से ८ वर्ष पूर्व लिखी गई, अतः प्रस्तुत कृति के रचनाकार जिनचन्द्रसूरि का खरतरगच्छ-परम्परा से सम्बन्ध मानने से कोई बाधा नहीं आती है।' आचार्य जिनचन्द्रसूरि (प्रथम) का कृतित्व :
प्रस्तुत कृति के कर्ता जिनचन्द्रसूरि के कृतित्व के विषय में हमें विशेष जानकारी तो उपलब्ध नहीं होती है, मात्र उनके द्वारा की गई साहित्य-सेवा के सम्बन्ध में यत्र-तत्र कुछ निर्देश अवश्य मिलते हैं। युगप्रधान आचार्य गुर्वावलि में यह उल्लेख है कि उन्हें अष्टादशनाममाला आदि अनेक ग्रन्थ कण्ठस्थ थे।' जिनचन्द्रसूरि द्वारा रचित ग्रन्थों के सन्दर्भ में निम्न सूचनाएँ उपलब्ध होती हैं - ऐसा कहा जाता है कि जवालीपुर (जालौर) में उन्होंने चैत्यवन्दनभावस्तव की जो
* खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास, पृ. ७४-७५. 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, पृ. ६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org