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________________ 438 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री को फेंक दिया। इससे त्रिदण्डी उसे वहीं छोड़कर चल दिया। अब जीने की आशा नहीं है - ऐसा विचारकर वह सागार - प्रत्याख्यान करके पंचपरमेष्ठि का स्मरण करने लगा। कुए में एक चन्दन गोह आई और जब वह रस पीकर जाने लगी, तब चारुदत्त ने उसकी पूँछ पकड़ ली और कुए से बाहर निकल गया । चारुदत्त प्रसन्न हुआ और उसने बड़ी मुश्किल से जंगल को पार किया । चलते-चलते आगे एक छोटा गांव आया, जहाँ उसे अपने रुद्र नामक मामा का मित्र मिला। दोनों ने टंकण देश में जाकर दो बलवान् बकरे खरीदे और वहाँ से वे स्वर्णभूमि जाने लगे, लेकिन आगे जाने का रास्ता नहीं था। तब रुद्र ने बकरों को मारकर समुद्र पार करने का उपाय बताया। उसे सुनकर चारुदत्त को करुणा उत्पन्न हुई । चारुदत्त द्वारा इन्कार करने पर भी रुद्र अपने बकरे को मारने लगा। उसी समय चारुदत्त ने बकरे के कान में पंचपरमेष्ठि नमस्कार - महामन्त्र सुनाया। उसे सुनकर वह बकरा शुभभाव द्वारा मरकर देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। फिर रुद्र ने शीघ्र ही उस बकरे के चमड़े में चारुदत्त को बन्द कर दिया और स्वयं ने दूसरे बकरे को मारकर उसमें प्रवेश किया। उसके बाद भारण्ड पक्षियों ने मांस के लोभ से दोनों को उठाया, परन्तु पक्षियों में परस्पर युद्ध होने से चारुदत्त पानी में गिर गया। चमड़े को शस्त्र से चीरकर गर्भ से जैसे जीव निकलता है, वैसे वह बाहर निकला। इस तरह दुर्जन की संगति से उसे संकट का सामना करना पड़ा। अब शिष्ट पुरुषों की संगति से किस प्रकार उसने धन प्राप्त किया, इसका प्रबन्ध इस प्रकार है — उस समुद्र को पारकर चारुदत्त रत्नद्वीप पर पहुँचा। वहाँ उसने अमितगति नामक एक चारण मुनि को देखा । चारुदत्त अतिप्रसन्न हुआ। उसने मुनि की वन्दना की। दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना। उसी समय दो विद्याधर आकाश से नीचे उतरे और उन्होंने मुनि को वन्दन किया, तभी वहाँ एक देव आया। उसने पहले चारुदत्त को, फिर मुनि को नमन किया। विद्याधर द्वारा पूछने पर देव ने कहा- “ये चारुदत्त मेरे धर्मगुरु हैं, क्योंकि जब मैं बकरा था, तब मृत्यु के समय इन्होंने मुझे पंचपरमेष्ठि- मन्त्र का श्रवण कराया, जिससे मुझे अति दुर्लभ देवभव की लक्ष्मी प्राप्त हुई है। इनके द्वारा ही मैं सर्वज्ञ परमात्मा को जाननेवाला बना हूँ।” देव ने चारुदत्त को वरदान मांगने को कहा, तब चारुदत्त ने कहा- " जब भी मैं आपका स्मरण करूँ, तब आप आ जाना।” देव उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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