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420 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
कैसे छुटकारा प्राप्त करूँगा।" इस तरह वह अपने पापों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार से विचार करने लगा।
पाप की विशुद्धि के लिए उद्विग्न मनवाले दृढ़प्रहारी ने एक मुनि को देखा, जो ध्यान में स्थिर खड़े थे। उसने परम श्रद्धापूर्वक उनको नमन किया, तत्पश्चात् उनसे कहा- “हे भगवन्त ! मैं इस प्रकार का घोर पापी हूँ। मेरी विशुद्धि के लिए आप कोई उपाय बताइए । ” मुनि ने उसे श्रमणधर्म का उपदेश दिया। कर्म के क्षयोपशम से पल्लीपति को मुनि के प्रवचन अमृत के समान रुचिकर लगने लगे और उसने वैराग्य को प्राप्तकर उन मुनि भगवन्त के पास दीक्षा अंगीकार की। तत्पश्चात् 'जिस दिन मुझे उस दुश्चरित्र का स्मरण होगा, उस दिन भोजन (आहार) नहीं करूँगा' - ऐसा अभिग्रह स्वीकार कर दृढ़प्रहारी मुनि उसी गांव में विचरने लगा।
उसे गांव में भिक्षा हेतु जाते हुए देखकर गांव के लोग उसे महापापी कहते तथा 'इसी ने ऐसा पापकार्य किया है'- ऐसा कहते हुए उसकी निन्दा करते और उसे मारते। मुनि गांव के लोगों की ताड़ना, तर्जना, निन्दा, आदि को समतापूर्वक सहन करता और अपनी आत्मा की निन्दा करता तथा अभिग्रह के कारण आहार भी ग्रहण नहीं करता, इस प्रकार वह धर्मध्यान में स्थिर रहने लगा। धर्मध्यान से शुक्लध्यान में आरूढ़ होकर मुनि ने केवलज्ञान प्राप्त किया तथा सर्व कर्मों का क्षय कर मुक्ति प्राप्त की।
इस तरह दृढ़प्रहारी मुनि की कथा को सुनकर तप करनेवालों को तप का थोड़ा-सा भी मद नहीं करना चाहिए ।
संवेगरंगशाला का उपर्युक्त कथानक यह बताता है कि निर्जरा का कारण तप है। तप एक ऐसी अग्नि है, जिसके द्वारा संचित कर्मों को शीघ्र ही भस्मीभूत किया जा सकता है, किन्तु इस तपरूपी अग्नि से भी भयंकर अग्नि अहंकार की है, जो पूर्व में की गई सम्पूर्ण उग्र तपस्या को क्षणभर में भस्म कर देती है; अतः साधक को यह ध्यान रखना चाहिए कि विवेकपूर्वक किया गया तप ही मुक्ति में साधक बनता है। इसी सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में दृढ़प्रहारी की यह कथा वर्णित है। प्रस्तुत कथानक हमें विशेषावश्यकभाष्य (३६, ४६ ), आवश्यकवृत्ति (पृ. ४३८ ), उत्तराध्ययनवृत्ति (पृ. ५६ - ६१), आदि में भी उपलब्ध होता है।
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