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________________ 414 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री रूप का मद करता है, वह मूढ़ व्यक्ति धनरक्षित की तरह कुरूप को प्राप्त करता है, इसलिए ज्ञानियों ने रूपमद का त्याग करने को कहा है। संवेगरंगशाला में वर्णित प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु चूर्णिकाल तक इस कथा का मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ । सम्भावना यह भी हो सकती है कि यह कथा किसी जैनेत्तर स्रोत से ग्रहण की गई हो और आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने उसे अपने ढंग से विषय के अनुरूप परिमार्जित करके लिखा हो । मल्लदेव राजा की कथा जीवों के शरीर का बल अनित्य है, क्योंकि वह बढ़ता और घटता रहता है - ऐसा जानकर बुद्धिमान् मनुष्य को उसका मद, अर्थात् अभिमान नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में मल्लदेव राजा की निम्न कथा वर्णित है :- 797 श्रीपुर नगर में विजयसेन नामक राजा राज्य करता था। एक समय राजा राजसिंहासन पर बैठा हुआ था, उस समय सेनापति बाहर से आया और राजा को नमस्कार कर राजा के पास बैठ गया। उसे क्षणभर स्नेहभरी दृष्टि से देखकर राजा ने उससे पूछा - " सब कुशल तो है?" सेनापति ने कहा- “ आपके चरणों की कृपा से सर्वकुशल होने के साथ ही मैं दक्षिण के राजा को जीतकर आया हूँ। " सेनापति ने राजा को, युद्ध में किस तरह से विजय प्राप्त की, उसका सर्ववृतान्त सुनाया। सेनापति के आदेशानुसार राजपुरुष शत्रु राजा के भण्डार और आठ वर्ष के पुत्र को लेकर आए। फिर सेनापति ने राजा से कहा - "हे राजन् ! ये भण्डार तथा यह पुत्र - दोनों दक्षिण राजा के हैं, इनके सम्बन्ध में आपको जैसा उचित लगे, वैसा करें। उसके पुत्र को देखते ही विजयसेन राजा को उस पर वैसा राग (प्रेम) उत्पन्न हुआ, जैसे वह उसका स्वयं का पुत्र हो । राजा प्यार से उसके मस्तक पर चुम्बन करते हुए उससे कहने लगा- " हे वत्स! तुम इसे अपना ही घर समझकर प्रसन्नता से रहो।" उस पुत्र की देखरेख हेतु राजा ने उसे रानी को सौंपा। क्रमशः, कुमारावस्था को प्राप्तकर उसने सर्व कलाओं का अभ्यास किया । युवावस्था में उसने देवताओं से भी अधिक सौन्दर्य को प्राप्त किया। अपने भुजबल से उसने 797 संवेगरंगशाला, गाथा ६७३२-६७७६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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