SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 394 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री क्षमायाचना करने लगे। मुनि ने कहा- “जो जिनेश्वर के द्वारा बताए गए मार्ग पर चलता है, वह कभी क्रोध नहीं करता है। क्रोध तो यह मेरी भक्ति में तत्पर बना हुआ यक्ष कर रहा है। तुम सब उसको प्रसन्न करो। " तुरन्त सभी ने मुनि को आहारदान देकर यक्ष को शान्त किया। इससे प्रसन्न हुए यक्ष ने वहाँ स्वर्ण व रत्नों की वृष्टि की। कलह धर्म को नष्ट करता है और पाप फैलाता है। वह कुगति में ले जाने के लिए एक सहज पगडण्डी है । कलह से गुणों की हानि एवं दोषों की वृद्धि होती है, इसलिए हाथी के बच्चे के समान बढ़ते कलह को प्रारम्भ में ही रोक देना चाहिए । रुद्र और अंगर्षि की कथा संवेगरंगशाला के अनुसार सज्जन व्यक्ति पर दोषारोपण करना ही अभ्याख्यान कहा जाता है तथा इसे सर्व सुखों का नाश करने में दुष्ट शत्रु के समान कहा गया है, अतः क्षपक मुनि को अभ्याख्यान - दोष का दूर से परित्याग करना चाहिए। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में रुद्र और अंगर्षि की निम्न कथा वर्णित है - 788 चम्पानगर में कौशिकाचार्य नामक एक उपाध्याय रहते थे। उनके पास अंगर्ष और रुद्र नामक दो विद्यार्थी शास्त्रों का अध्ययन करते थे। अवकाश के दिन उपाध्याय ने दोनों को लकड़ियों का एक-एक गट्ठर लाने को कहा। अंगर्षि सरल प्रकृतिवाला होने से, तुरन्त गुरु की आज्ञा स्वीकार कर लकड़ियाँ लेने जंगल में चला गया। इससे विपरीत रुद्र दुष्ट स्वभाववाला था, अतः गुरु- आज्ञा को स्वीकार किए बिना ही वहाँ से जाकर बालकों के साथ खेलने लगा। सन्ध्या के समय जब अंगर्षि जंगल से लकड़ियाँ लेकर आ रहा था, तब रुद्र उसे देखकर भयभीत हुआ। इतने में उसने एक वृद्धा को भी सिर पर लकड़ियाँ उठाकर लाते हुए देखा। बिना विचार किए रुद्र ने उसी क्षण उस वृद्धा को मार दिया और उसे गड्ढे में गाढ़ दिया, फिर तुरन्त उन लकड़ियों के गट्ठर को उठाया और शीघ्रता से आश्रम में पहुँचकर गुरुजी से कहने लगा- “हे उपाध्यायजी ! आपको जो शिष्य प्रिय है, वह कितना पापी है, उसे आपने कभी देखा ?” गुरु द्वारा स्पष्ट बात पूछने पर उसने कहा- “गुरुजी ! आपके सामने तो वह पापी जंगल जाने के लिए रवाना हुआ और पीछे से वह पूरे दिन बच्चों के साथ खेलता रहा, फिर शाम संवेगरंगशाला, गाथा ६२५३-६२६८. 788 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy