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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 389 जाता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। दो माशा का सोचकर आया था, अब करोड़ से भी इच्छा पूर्ण नहीं हो रही है। यह लोभ ही पाप का मूल है। ऐसा चिन्तन करते-करते उसे जातिस्मरण-ज्ञान हो गया। ज्ञान से उसने अपने पूर्वभवों को देखा, जिससे उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और फिर उसने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। दीक्षा लेकर कपिल राजा के पास पहुँचा। तब राजा ने पूछा- “हे भद्र! तूने क्या विचार किया?" उसने अपने एक करोड़ स्वर्णमोहर तक के विचार को प्रकट किया। राजा को इच्छापूर्ति करने हेतु तत्पर बना देखकर मुनि ने कहा- "हे राजन्! अब मुझे इस परिग्रह से कोई प्रयोजन नहीं है।" ऐसा कहकर कपिल मुनि राजसभा से बाहर आए और उसी समय उन्हें केवलज्ञान प्रकट हुआ। जो लोभी व्यक्ति अपने लोभ का प्रायश्चित्त किए बिना मरता है, उसे लम्बे समय तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है तथा जिन महापुरुषों ने लोभ के विपाक को जानकर सन्तोष धारण कर लिया है, उन्होंने ही शाश्वत सुख, अर्थात् मोक्ष-सुख को प्राप्त किया है। इस कथा के द्वारा संवेगरंगशाला में यह बताया गया है कि व्यक्ति को लोभवत्ति से हानि एवं सन्तोष से लाभ होता है। इस सम्बन्ध में कपिल ब्राह्मण की यह कथा दी गई है। लोभकषाय की प्रबलता सर्वत्र दिखाई देती है। लोभ को 'पाप का बाप' कहा गया है, क्योंकि स्वर्णमुद्राओं को देखकर लोभ के वशीभूत बना जीव अपने व्रतों को छोड़ने के लिए भी तत्पर बनता है। प्रस्तुत कथानक हमें उत्तराध्ययन (अध्याय ८), उत्तराध्ययनवृत्ति (पृ. १६८), उत्तराध्ययनचूर्णि (पृ. १६८-१७०) में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त नन्दीसूत्रवृत्ति (पृ. २६) में भी प्रस्तुत कथा का उल्लेख मिलता है। इससे यह प्रतीत होता है कि जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत दृष्टान्त उत्तराध्ययनसूत्र से ही ग्रहण किया होगा। धर्मरुचि अणगार की कथा द्वेष अनर्थ का घर है। भय, कलह और तनावों की उत्पत्ति का कारण है। वह प्रेमियों और मित्रों में भी द्रोह उत्पन्न करनेवाला है। वस्तुतः, अति क्रोध और मान से उत्पन्न हुए अशुभ आत्म-परिणाम ही द्वेष हैं। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में धर्मरुचि अणगार की निम्न कथा वर्णित है-786 780 संवेगरंगशाला, गाथा ६१२१-६१५३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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