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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 381 प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा जिस प्रकार दुर्गन्ध से सबको घबराहट होती है, उसी प्रकार क्रोध से सबको उद्वेग होता है। दुर्दान्त शत्रु तो एक भव का ही अहित करता है, जबकि क्रोध अनेक भवों का अहित करनेवाला होता है, इसीलिए जिस कार्य को उपशम, अर्थात् शान्त स्वभाववाला व्यक्ति सिद्ध कर सकता है, उस कार्य को क्रोधी कदापि सिद्ध नहीं कर पाता है, क्योंकि उसकी बुद्धि निर्मल नहीं होती है। संवेगरंगशाला में इस सन्दर्भ में प्रसत्रचन्द्र राजर्षि की निम्न कथा वर्णित है :-781 पोतनपुर नगर में प्रसन्नचन्द्र नामक राजा राज्य करता था। उसने राज्य का त्याग कर वीरप्रभु के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। वहाँ से प्रसन्नचन्द्र राजर्षि प्रभु महावीर के साथ विहार करते हुए राजगृह नगरी में पहुंचे। यहाँ आकर वे (प्रसन्नचन्द्र राजर्षि) खड्गासन में कायोत्सर्ग कर ध्यान में स्थिर हो गए। जिस समय राजा श्रेणिक अपने सैन्यसहित महावीर प्रभु को वन्दना करने के लिए उसी रास्ते से निकला, उसी समय सुमुख और दुर्मुख नामक दो दूतों ने महात्मा (प्रसन्नचन्द्र) को देखा। सुमुख ने कहा- “ये विजयी हैं। इनका जीवन सफल है, क्योंकि इन्होंने राज्य को छोड़कर संयम अंगीकार किया है।" यह सुनकर दुर्मुख ने कहा- "हे भद्र! यह तो कायर है, जिसने अपने निर्बल पुत्र को राज्य-सिंहासन पर बैठाकर स्वयं शत्रुओं के भय से दीक्षा स्वीकार कर ली। इनके कारण राजपुत्र तथा प्रजा शत्रुओं से पीड़ित हो रही है।" जैसे ही दुर्मुख के वचन राजर्षि के कर्णपटल से टकराए, वे तत्काल संयम की मर्यादा को भूल गए और कुपित होते हुए चिन्तन करने लगे- “अरे! मेरे जीवित होते हुए कौन मेरे पुत्र एवं राज्य पर आक्रमण कर रहा है? मैं मानता हूँ कि यह सीमा के दुष्ट राजाओं की ही चालबाजी है। अब मैं उनको पराजित करके ही शान्त बनूँगा।" ऐसा विचार कर राजर्षि कायोत्सर्ग में ही मन से युद्ध करने लगे। इधर प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यानमग्न देखकर श्रेणिक राजा विस्मित हुआ और उन्हें भावपूर्वक नमस्कार कर वह भगवान के पास पहुँचा तथा भगवान् से पूछने लगा- "हे भगवन! ध्यान में निरत प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की यदि मृत्यु हो जाए, तो वे कहाँ उत्पन्न होंगे?" प्रभु ने कहा- "सातवी नरक में उत्पन्न होंगे।" इस पर श्रेणिक विचार करने लगा- '(शायद) मैंने ठीक तरह से नहीं सुना।' अतः वह बार-बार वही प्रश्न पूछने लगा। विगरंगशाला, गाथा ५६२४-५६४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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