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362 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
लज्जा से दोष छुपानेवाले ब्राह्मण-पुत्र की कथा
मानव लज्जावश अपने अपराध को छपाने की कोशिश करता है. किन्त लज्जा के अधीन अपराध को सम्यक् रूप से नहीं बताने से वह दोष का भागी होता है तथा लज्जा से रहित होकर अपना अपराध कह देने से उसमें गुण प्रकट होता है। इसे समझाने के लिए संवेगरंगशाला में ब्राह्मण-पुत्र का दृष्टान्त दृष्टव्य
जगत में पाटलीपुत्र नामक प्रसिद्ध नगर में वेद और पुराण का ज्ञाता, धर्म में उद्यमशील तथा बुद्धिमान् कपिल नाम का ब्राह्मण रहता था। उसने अपनी बुद्धि से संसार के स्वरूप को जाना तथा विषय-सुख को किंपाकफल के समान प्रारम्भ में मधुर और परिणाम में दुःखद मानकर अपने घर का राग छोड़ दिया
और जंगल में जाकर तापसी दीक्षा स्वीकार कर ली। वहाँ वह विविध तपस्या करता हुआ, कन्द, मूल, आदि खाकर तापसी जीवन का निर्वाह करने लगा।
एक दिन वह स्नान करने के लिए नदी किनारे गया। वहाँ उसने मछुआरे को मछली का माँस खाते देखा। इससे उसकी रसनेन्द्रिय वश में न रही
और उसे माँस-भक्षण करने की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई, लेकिन अपनी इच्छा का दमन नहीं हो पाने से उसने मछुआरे के पास से माँस माँग कर खाया। माँस-भक्षण से उसके पेट में तीव्र पीड़ा हुई और अजीर्ण-दोष के कारण उसे बुखार भी आ गया। उसकी चिकित्सा हेतु नगर के कुशल वैद्य को बुलाया गया। वैद्य ने उससे पूछा- “हे भद्र! बुखार से पूर्व तूने क्या भक्षण किया था?" लज्जावश सत्यता को छुपाते हुए उसने कहा- “तापसजन जो खाते हैं, उसी कन्द, मूल, आदि का मैंने आहार किया है।" वैद्य ने बुखार शान्त करने के लिए उसका सामान्य उपचार किया, परन्तु उससे कोई लाभ नहीं हुआ। वैद्य ने पुनः पूछा और लज्जावश तापस ने पुनः वहीं बात बताई। वैद्य ने अब उसका उपचार विशेष रूप से किया। इस तरह गलत उपचार से वेदना बढ़ने लगी। तीव्र वेदना और मौत के भय से उसका शरीर काँपने लगा, तब कपिल तापस ने लज्जा का त्याग कर एकान्त में वैद्यजी को माँस-भक्षण का वृत्तान्त कहा।
वैद्य ने कहा- "हे मूढ़! इतने दिन इस बात को छुपाकर अपनी आत्मा को कष्ट में क्यों रखा? अब भी सत्य बताकर तूने अपनी आत्मा का अहित होने
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'संवेगरंगशाला, गाथा ४६५४-४६७५.
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