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________________ 354 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री शिवभद्राचार्य का प्रबन्ध समाधिमरण का इच्छुक आचार्य किसी गुणसम्पन्न साधु को शास्त्रोक्त विधि से आचार्य पद पर स्थापित करे, तत्पश्चात् समग्र के समक्ष 'यह गण अब तुम्हारा है'- ऐसा कहकर गण-समर्पण करे। यदि आचार्य अन्य साधु को आचार्य - पद पर स्थापन नहीं करता है; तो आचार्य स्वयं का तथा गच्छ का अहित करता है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में शिवभद्राचार्य की कथा उपलब्ध है : 767 कंचनपुर नगर में शिवभद्र नामक आचार्य थे। एक बार वे अपने आयुष्य को जानने के लिए मध्यरात्रि में आकाश देखने लगे। आकाश में उन्हें उज्ज्वल दो चन्द्र समकाल में दिखाई दिए । आचार्य ने 'यह सत्य है, या असत्य' - यह निर्णय करने हेतु विस्मितचित्त से एक मुनि को जाग्रत कर पूछा - "हे भद्र! क्या तुझे आकाश में दो चन्द्र दिखाई दे रहे हैं?" मुनि ने कहा- “मुझे तो एक ही चन्द्र दिख रहा है।” आचार्य ने अनुमान लगाया- अब मेरी आयु अत्यन्त अल्प है, क्योंकि लम्बी आयुष्यवाला व्यक्ति ऐसे उत्पात को नहीं देखता है, अतः अब विकल्प से क्या प्रयोजन है। 'जीवन कुशाग्र जलबिन्दु की तरह अनित्य है, तो उसकी नश्वरता के सन्दर्भ में आश्चर्य क्यों? उत्तम शील का आचरण करनेवालों एवं घोर तपस्या करनेवालों के लिए तो मृत्यु भी मन को आनन्द प्रदान करती है, परन्तु बिना पाथेय के मुसाफिर - समान जो परभव जाने के समय सद्धर्म का उपार्जन नहीं करता है, वह दुःखी होता है, इसलिए अब मैं उत्तम गुणवाले साधु को आचार्य पद पर नियुक्त करूँ एवं उत्कृष्ट तपस्या द्वारा काया को कृश करके एकाग्र मन से दीर्घ साधु - जीवन का फल प्राप्त करूँ'- शिवभद्र ऐसा विचार करने लगे। शिवभद्र को अपने शिष्यों में किसी-न-किसी प्रकार के अवगुण दिखाई दिए। इस तरह शिष्यों में आचार्य-योग्य गुण न पाकर उन्होंने किसी भी शिष्य को गणधर - पद पर नियुक्त नहीं किया। वे विचार करने लगे- “जानते हुए भी जो स्नेहराग के वशीभूत हो आचार्य पद पर कुपात्र का स्थापन करता है, वह जिनशासन का प्रत्यनिक (विद्रोही) कहलाता है। इस तरह उन्होंने अनेक गुणों से युक्त शिष्यों की अवगणना की, फिर भविष्य का विचार किए बिना संलेखना करके अनशन स्वीकार किया। अनशन में रहने के कारण शिवभद्र अपने शिष्यों को शारण - वारणादि नहीं कर पाते थे, जिससे शिष्य वर्ग जंगली हाथियों के समान 767 संवेगरंगशाला, गाथा ४२१३- ४२४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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