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________________ 352 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री मस्तक-मुण्डन के बाद नक्षत्र देखने से क्या लाभ?" परन्तु पिता द्वारा अतिआग्रह करने पर पुत्री ने अपना सर्ववृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर पिता पर जैसे वज्रपात हुआ, वह निस्तेज हो गया। विवाह का कार्य पूर्ण होने पर जब पति के साथ जाने का समय आया, तब पति से बचने के लिए अन्य कुछ उपाय नहीं मिलने पर मकान के शिखर से नीचे गिरकर उसने अपने प्राण त्याग दिए। सभी ने इसकी मृत्यु का कारण गंगदत्त को माना। इससे जब गंगदत्त अपने दुर्भाग्य के कारण नगर में लज्जित होने लगा, तब पिता ने उससे कहा- "हे पुत्र! इस विषय में तू जरा भी दुःख मत करना।" पिता ने और अधिक सम्पत्ति खर्च करके पुत्र का दूसरा विवाह कर दिया। दूसरी पत्नी के आने पर उसके साथ भी वैसी ही घटना घटित हुई और वह भी फांसी लगाकर मर गई। इस तरह गंगदत्त को दुःसह कलंक लगा। इससे वह विचारने लगा- 'मैंने ऐसा कौनसा पापकर्म किया है, जिससे मैं स्त्रियों के द्वेष का निमित्तरूप बनता हूँ।' साथ ही वह सनत्कुमार, आदि महात्माओं के त्याग का स्मरण कर अपने-आपको धिक्कारने लगा- 'अहो! निष्फल विषयतृष्णा से मैं मृगतृष्णा सम दुःखी हो रहा हूँ।' तब पिता ने कहा- "हे पुत्र! यहाँ आचार्य गुणसागरसूरि पधारे हैं। चलो, वहाँ चलकर उनको नमस्कार करें।" वहाँ आकर दोनों ने आचार्य भगवन्त को नमस्कार किया तथा अपने योग्य स्थान ग्रहण कर प्रवचन श्रवण करने लगे। अन्त में गंगदत्त ने आचार्य से पूछा- "मैंने पूर्वजन्म में ऐसा कौनसा पापकर्म किया है, जिससे इस भव में मैं स्त्रियों का अतिद्वेषी बना?" आचार्य ने उसे उसका पूर्वभव सुनाना प्रारम्भ किया। "पूर्वभव में तुम शतद्वार नगर में शेखर नामक राजा की काम-भोगों में अतिआसक्त एवं अतिप्रिय रानी थी। राजा की अन्य और पाँच सौ रानियाँ थीं। राजा के साथ निर्विन भोग की इच्छा होने से उस प्रियरानी ने उन पाँच सौ रानियों को मन्त्र-तन्त्र से मार दिया। इस पापकर्म से उसने दुर्भाग्य नामकर्म का उपार्जन किया। अन्तकाल में अनेक रोगों से मरकर दह रानी नरक एवं तियंच-गति में गई। वहाँ अनेक बार दुःखों को भोगकर दुर्लभता से मनुष्यभव को प्राप्त किया। इस तरह पूर्वकर्म के कारण ही इस भव में भी तू दुर्भाग्य का अनुभव कर रहा है।" सर्ववृत्तान्त सुनकर गंगदत्त धर्म के प्रति श्रद्धावनत बना और उसने संसार से उद्वेग प्राप्त किया। उसने पिता से आज्ञा लेकर आचार्य के पास दीक्षा स्वीकार की और शास्त्रों का गहन अध्ययन कर पृथ्वीतल पर विचरने लगा। कुछ काल पश्चात् जब उसने अनशन करने का निश्चय किया, तब स्थविरों ने उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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