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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 339
दिया, जिससे प्रतिबोधित होकर क्षोमिल ने मुनि के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। इधर वज्र को अपना मित्र नहीं मिलने पर वह अपने नगर में पहुँचा। वहाँ रत्नों को बेचकर उसने खूब धन-सम्पत्ति प्राप्त की। सांसारिक-सुखों का सेवन करते हुए उसके यहाँ पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम केशरी रखा गया। वज्र ने अल्प समय में अत्यधिक धन प्राप्त किया, जिससे स्वजन भी उसके अनुकूल हो गए। इससे वज्र ने विचार किया- 'इस जगत् में मानव धन के बिना अनादर प्राप्त करता है, इसलिए प्राणों से भी अधिक इसकी रक्षा करना चाहिए।' ऐसा विचार करके उसने पुत्र को बताए बिना ही धन को गुप्त रूप से जमीन में गाढ़ दिया।
कुछ दिन पश्चात् तप से अत्यन्त कृश कायावाले क्षोमिलमुनि उसी नगरी में पधारे। वज्र ने कठिनाई से मुनि को पहचानकर वन्दन किया एवं मुनि से पूछा“आप मुनि कैसे हो गए?" मुनि ने निष्कपटभाव से सर्ववृत्तान्त वज्र को सुनाया। इससे प्रतिबोधित होकर वज्र ने भी जैन-धर्म स्वीकार किया।
वृद्धावस्था आ जाने से वज्र ने अपने स्थान पर केशरी को स्थापित किया और स्वयं विशेष आराधना करने लगा। वज्र धर्म का निरतिचारपूर्वक पालन करने लगा, परन्तु धन के प्रति उसका मोह जरा भी नहीं छूटा। पुत्र द्वारा बार-बार पूछने पर भी मोहवश वज्र धन नहीं बताता। वह सदैव सामायिक-पौषध में स्थिर रहता। ऐसा करते हुए एक दिन वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। धन की मूर्छा से दुःखी पुत्र विमूढ़ मनवाला बन गया और कहने लगा- "हे पापी पिता! तू अपने पुत्र का परम वैरी बना? तूने धरती में धन गाढ़कर उस निधान का कोई उपयोग नहीं किया और उसे यूं ही नष्ट कर दिया, तेरे धर्म को धिक्कार हो।" ऐसा विलाप करता हुआ मरकर वह तिर्यंचगति में गया।
इस तरह आराधक के लिए मूर्छाभाव रखकर कर्मबन्धन में निमित्त बनना योग्य नहीं है, ऐसा निर्देश करते हुए आचार्यश्री ने संवेगरंगशाला में वज्र और केशरी की कथा कही है। यह कथा हमें किसी अन्य ग्रन्थ में उपतब्ध नहीं होती है।
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