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304 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री फलों की हमें आवश्यकता है, उतने पके फल जमीन पर गिरे पड़े हैं, अतः इन्हें उठाओ और खाओ। इन्हीं से अपने प्राणों का निर्वाह हो जाएगा।"
___इस दृष्टान्त के माध्यम से यह फलित होता है कि छहों के विचारों में कितनी भिन्नता है और इन विभिन्न परिणामों का कारण लेश्या है। इसमें प्रथमपेड़ को मूल से काटनेवाला पुरुष कृष्णलेश्यावाला है, दूसरा- नीललेश्यावाला है, तीसरा- कापोत लेश्यावाला है, चौथा- तेजस्-लेश्यावाला है, पांचवा- पद्मलेश्यावाला है और छठवाँ- नीचे गिरे फलों को ग्रहण करने का उपदेश देनेवाला शुक्ल-लेश्यावाला है।738
इसी तरह संवेगरंगशाला में एक और दृष्टान्त का उल्लेख करते हुए क्षपकमुनि को अप्रशस्त-लेश्या का त्याग करने एवं प्रशस्त-लेश्या को प्राप्त करने का निरूपण किया गया है। एक बार छः चोर एक गाँव को लूटने के लिए आए। तब एक चोर कहता है- "मनुष्य अथवा पशु, जिन्हें देखो, तुम सबको मारो," अतः वह चोर कृष्णलेश्यावाला है। दूसरे चोर ने कहा- "पशुओं को क्यों मारें? केवल मनुष्यों को ही मारो," अतः वह चोर नीललेश्यावाला है। तीसरे चोर ने कहा- "स्त्री, आदि को छोड़कर केवल पुरुषों को ही मारो।" अतः वह चोर तेजस्-लेश्यावाला है। पांचवे चोर ने कहा- “जो शस्त्रधारी हमारे ऊपर प्रहार करें, केवल उन्हें ही मारो।" अतः वह चोर पद्मलेश्यावाला है और अन्तिम छठवें चोर ने कहा- “एक तो हम निर्दयी-पापी बनकर उनका धन लूट रहे हैं और दूसरे मनुष्य को भी मार रहे हैं। अहो! यह कैसा महापाप है? इसलिए ऐसा करें, किसी को मारो मत, मात्र धन की ही चोरी कर लो।" अतः इस अन्तिम चोर को शुक्ल-लेश्यावाला जानना चाहिए,39 क्योंकि उसमें हिंसा के भाव का अभाव है। इस दृष्टान्त को हिंसा. की तरतमता के आधार पर समझना चाहिए, चोरी के आधार पर नहीं।
_इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है कि विशुद्ध भाववाले तथा संवेग (वैराग्य) प्राप्त करनेवाले व्यक्ति को कृष्ण, नील एवं कापोत-लेश्या को छोड़ना चाहिए और तेजस्, पद्म एवं शुक्ल-लेश्या को ग्रहण करना चाहिए। संवेगरंगशाला में कहा गया है कि जीव को लेश्याओं की शुद्धि, परिणामों की शुद्धि से होती है, परिणामों की शुद्धि मन्द कषायवालों को होती है, कषायों की मन्दता बाह्य-वस्तुओं के प्रति राग को छोड़ने से होती है, इस प्रकार समाधिमरण प्राप्त करनेवाले देहासक्ति से रहित जीव को शुद्धलेश्या प्राप्त होती है। जैसे छिलके के सहित धान
738 संवैगरंगशाला, गाथा ६६६८-६६७६. 739 संवेगरंगशाला, गाथा ६६८०-८६८४.
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