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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 299
प्रत्याख्यानी-क्रोध (तीव्र)-बालू की रेखा जैसे हवा के झोंकों से जल्दी ही मिट जाती है, वैसे ही प्रत्याख्यानी-क्रोध चार मास से अधिक स्थाई नहीं होता है।
४. संज्वलन-क्रोध (अल्प)-शीघ्र ही मिट जानेवाली पानी में खींची गई रेखा के समान इस क्रोध में स्थायित्व नहीं होता है।
२. मान : संवेगरंगशाला के अनुसार मान-कषाय का अर्थ है- अंहकार करना, फिर चाहे वह अंहकार कुल का है। या धन का, ज्ञान का हो या बल का। मान-कषाय पराभव का मूल है एवं अक्खड़ता के दोष से अपने यश एवं कीर्ति को नाश करनेवाला है। अभिमानी व्यक्ति अपने गुणों एवं योग्यताओं का बढ़े-चढ़े रूप में प्रदर्शन करता है, जैसे- हम ही त्यागी एवं श्रुतवान् हैं, हम ही गुणी एवं उग्र क्रिया करनेवाले हैं, अन्य तो कुत्सित, मात्र वेशधारी हैं। इस तरह मनुष्य मानरूपी अग्नि से पूर्व में किए तप एवं विद्यमान गुणरूपी वन को जल देता है, स्वयं जीवों की हिंसा करता है, सदैव शास्त्रविरुद्ध कर्मों को करता है और तिस पर भी गर्व करता है कि इस जगत् में धर्म का पालन करनेवाला केवल वह ही
अहंकार की तीव्रता एवं मन्दता से मान के भी चार भेद हैं -
१. अनन्तानुबन्धी-मान :- पत्थर के खम्भे के समान जो झुकता नहीं? अर्थात् जिसमें विनय-गुणनाम मात्र भी नहीं है।
२. अप्रत्याख्यानी-मान :- हड्डी के समान कठिनता से झुकनेवाला, अर्थात् जो विशेष परिस्थितियों में बाह्य-दबाव के कारण विनम्र हो जाता है।
३. प्रत्याख्यानी-मान :- लकड़ी के समान प्रयत्न से झुक जानेवाला, अर्थात् जिसके अन्दर विनम्रता तो होती है, लेकिन जिसका प्रकटन विशेष स्थिति में ही होता है।
४. संज्वलन-मान :- बेंत के समान अत्यन्त सरलता से झुक जानेवाला, अर्थात् जो आत्मगौरव को रखते हुए भी विनम्र बना रहता है। 25
३. माया : संवेगरंगशाला में कहा है- माया विवकेरूपी चन्द्र को निगलनेवाले राहू ग्रह के समान है, कुटिलता की बोधक है। 24 योगशास्त्र में कहा
722 विगरंगशाला, गाथा ५६५५-५६५७. 723 कर्मग्रन्थ, १/अ, गाथा १६. .
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