________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 293
सकता है, फिर भी “ऐसा कहने से हमे लाभ होगा"- ऐसा मानकर आपने जो कुछ भी कठोरतापूर्वक हमसे कहा, वह भी एक उत्तम वैद्य की कड़वी औषध के समान परिणाम की अपेक्षा हमारे लिए हितकर ही था, अपितु हमारे द्वारा आपके प्रति किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार हुआ हो, तो उनकी क्षमायाचना करना हमारे लिए उचित है। अतः हे भगवन्! अज्ञानवश, कषाय के वशीभूत होकर, उपयोग बिना मन-वचन-काया से जो भी अपराध किया हो, कराया हो, अथवा करनेवाले को अच्छा कहा हो, तो उन सर्वदोषों की हम भी आपसे क्षमा याचना करते हैं। 704
इसके पश्चात् शिष्य भी अपने द्वारा हुए अपराधों का कथन करते हुए गुरु से क्षमायाचना करते हैं-हे स्वामी! आपके द्वारा सदैव हित करने पर भी हमने मन से विपरीत कल्पना की हो, आपकी पीठ पीछे निन्दा की हो, अपशब्द कहें हों, अविनय आशातना की हो तथा आपके द्वारा सारणा, वारणा, आदि करते हुए कोई वस्तु या शिक्षा प्रेम से देने पर भी उसे अविनय से स्वीकार किया हो, तो उन सभी अपराधों की मन-वचन-काया से क्षमायाचना करते हैं। इस तरह शिष्य को भी आँसू बहाते हुए मस्तक झुकाकर अपनी सर्व भूलों की यथायोग्य क्षमा माँगना चाहिए।
___ साथ ही संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार यह भी कहते हैं कि निर्यापक आचार्य को, क्षपक को, श्रीसंघ से एवं सर्वप्राणियों से अपने सर्वपापों की क्षमायाचना करने के लिए कहना चाहिए। फिर, क्षपक दोनों हाथों से अंजली बनाकर मस्तक नमाकर श्रीसंघ से क्षमायाचना करते हुए कहता है- आप निश्चय से लोक के समग्र जीवों के माता-पितातुल्य हो, इसलिए आपसे क्षमा मांगने से विश्व के साथ क्षमायाचना हो जाती है। अन्त में क्षपक कहता है-आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक-कुल तथा गण के प्रति मैंने कषाय किया हो, अथवा कराया हो, या अनुमोदित किया हो, उन सभी की सम्यक् प्रकार से क्षमायाचना करता हूँ एवं वे सभी भी मुझे क्षमा प्रदान करें।706
भगवतीआराधना के अनुसार क्षमायाचना करना क्षमापना है। क्षपक-संघ के समस्त सदस्यों से क्षमायाचना करता है। यदि क्षपक सबके पास क्षमा माँगने नहीं जा सकता है, तो उसकी तरफ से सबकी ओर से क्षमायाचना का संदेश लेकर आचार्य जाते हैं। वे अपने साथ उस क्षपक की पिच्छिका लेकर जाते हैं
704 संवेगरंगशाला, गाथा ४२४३-४२६७. 705 संवगरंगशाला, गाथा ४२६८-४२७८. 706 संवेगत्गशाला, गाथा ५४५०-५४६८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org