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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 203 दक्षिण-दिशा में हो, तो संघ को आहारलाभ सुलभ होता है। यदि पश्चिम-दिशा में हो, तो संघ का विहार सुखपूर्वक होता है तथा उपकरणों का लाभ होता है, किन्तु पूर्व-दक्षिण दिशा में होने से "मैं ऐसा हूँ, तुम ऐसे हो"- इत्यादिरूप संघर्ष होता है, पश्चिमोत्तर-दिशा में होने से कलह होता है। पूर्व-दिशा में होने से संघ में भेद पैदा होता है, उत्तर-दिशा में होने से व्याधि होती है, पूर्वोत्तर-दिशा में परस्पर खींचतान होती है। इस प्रकार उक्त दिशाओं में निषधा बनाने का फल बताया गया है।463 ग्रन्थकार का कहना है- यदि प्रथम दिशा में व्याघात अथवा विघ्न उत्पन्न होता हो, तो दूसरी दक्षिण-दिशा प्रथम दिशा के सदृश ही गुणकारी व हितकारी सिद्ध होती है, दूसरी दिशा में भी यदि विघ्न उत्पन्न होता हो, तो तीसरी पश्चिम-दिशा भी प्रथम दिशा के समान उत्तम मानी जाती है। इस तरह सर्व दिशाओं में महापरिष्ठापना के लिए शुद्ध भूमि की खोज करना चाहिए। जिस समय मुनि देह का त्याग करता है, उसी समय देह को वहाँ से ले जाना चाहिए, किन्तु जब क्षपक असमय मरण को प्राप्त करता है, तब गीतार्थ मुनि, अर्थात् जिन्होंने अनेक बार क्षपक के वैयावृत्य का कार्य किया हो, ऐसे महासत्त्वशाली एवं महापराक्रमी मुनि मृतक के हाथ, पैर या अंगूठे को बांधते तथा छेदते हैं तथा धीर वृद्ध मुनि उस दिन जागरण करते हैं, क्योंकि इस विधि का परिपालन नहीं करने से अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे- व्यन्तर, आदि मनोविनोदी देव कौतूहलवश मृतक के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं तथा उसे उठाकर दौड़ सकते हैं; अथवा क्रीड़ा कर सकते हैं तथा अनेक विघ्नों को उत्पन्न कर सकते हैं, अतः ऐसे समय में धैर्यवान् मुनि को शास्त्र-विधि के अनुसार क्षुद्रदेवता, आदि को शान्त करना चाहिए। इस प्रकार श्रुत के मर्मज्ञ निर्यापक आचार्य तथा अन्य तपस्वी मुनि को इन सब बातों का अनुसरण करते हुए सावधानीपूर्वक शीघ्र ही क्षपक के देह की परिष्ठापना करना चाहिए।404 देहत्याग के नक्षत्र और उनके प्रतिफल इसमें आगे नक्षत्रों की चर्चा करते हुए ग्रंथकार कहते हैं - यदि क्षपक महानक्षत्र में देहत्याग करता है, तो शेष मुनियों में से दो मुनियों की मृत्यु होती है, इसलिए संघ की रक्षा के अभिप्राय से तृणों के दो पुतले बनाना चाहिए। यदि मध्यम नक्षत्र अथवा समभोग वाले नक्षत्र में कालधर्म करता है, तो एक की मृत्यु 463 भगवतीआराधना, गाथा १६६५-१६६७. ५ संवेगरंगशाला, गाथा ९८१६ - ६८१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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